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आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन
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विविध विधाओं में श्रेष्ठ साहित्य का प्रणयन किया।
योग, दर्शन, अध्यात्म, आगम, सिद्धान्त, आचार, कथा और काव्य आदि विविध विधाओं साहित्य का प्रणयन करके इन्होंने प्राकृत एवं संस्कृत भाषा के साहित्य के विकास में महनीय योगदान किया है। ये जन्मनः अद्वितीय प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् ब्राह्मण थे और चित्तौड़ के राजा जितारि के राजपुरोहित भी। बाद में प्रसंगवश जैन साध्वी याकिनी महत्तरा के उपदेश से जैनधर्म में दीक्षित हुए। इनके दीक्षागुरु जिनदत्त थे। याकिनी महत्तरा को इन्होंनें अपनी धर्ममाता माना और अपने को याकिनीसूनु कहा । "
दीक्षा के बाद अपनी विद्वत्ता तथा विशुद्ध साधु आचार का पालन करने के कारण ये अपने आचार्य के पट्टधर आचार्य बने। इनका जीवन राजपूताना और गुजरात में विशेष रूप से व्यतीत हुआ। इनके द्वारा विरचित अधिकांश ग्रन्थों के अन्त में 'विरह' शब्द उपलब्ध होता है।
आचार्य हरिभद्र को १४४४ ग्रन्थों का रचयिता माना जाता है। प्रबन्धकोश के कर्ता राजशेखरसूरि ने इनको १४४० ग्रन्थों का रचयिता लिखा है; किन्तु इनमें से कुछ ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इनकी उपलब्ध कृतियों का विवरण इस प्रकार है। १. मूल ग्रन्थ
१. धर्मसंग्रहणी, २. पंचाशकप्रकरण, ३. पंचवस्तुकप्रकरण, ४. धर्मबिन्दुप्रकरण, ५. अष्टकप्रकरण, ६. षोडशकप्रकरण, ७. सम्बोध प्रकरण, ८. उपदेशपद, ९ षड्दर्शनसमुच्चय, १०. अनेकान्तजयपताका, १२. अनेकान्तवादप्रवेश, १३. लोकतत्त्वनिर्णय, १४. सम्बोधसप्ततिप्रकरण, १५. समराइच्चकहा, १६. योगविंशिका, १७. योगदृष्टि समुच्चय, १८. योगबिन्दु ।
२. टीका ग्रन्थ
१. नन्दीसूत्र, २. पाक्षिकसूत्र, ३. प्रज्ञापनासूत्र, ४ आवश्यकसूत्र, दशवैकालिक, ६. पञ्चसूत्र, ७. अनुयोगद्वार, ८. ललितविस्तरा, ९. तत्त्वार्थवृत्ति ।
५.
कथा-साहित्य के अन्तर्गत आचार्य हरिभद्र ने एक ओर समराइच्चकहा जैसा बड़ा धर्मकथा ग्रन्थ रचा वहीं व्यंग्यप्रधान धूर्ताख्यान जैसा कथा ग्रन्थ भी लिखा। इतना ही नहीं इन्होंने जैनागम ग्रन्थों की टीकाओं में से दशवैकालिकटीका में लगभग तीस तथा उपदेशपद नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ में लगभग सत्तर प्राकृत कथाएँ दी हैं। वस्तुतः आगमों का टीका साहित्य कथाओं तथा दृष्टान्तों का अक्षय भण्डार है। ये टीकाएँ संस्कृत में होने पर भी इनका कथाभाग प्राकृत में ही उपलब्ध है।
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