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आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत उपदेशपद : एक
अध्ययन*
डॉ० फूलचन्द जैन प्रेमी'
उपदेशपद प्राकृत-भाषा का धर्मोपदेश कथा-प्रधान वह महान् ग्रन्थ है, जिसका अनेक दृष्टियों से अध्ययन आवश्यक है। इसके विशद् अध्ययन के आधार पर कई महत्त्वपूर्ण शोध-प्रबन्ध लिखे जा सकते हैं। मैंने अपने इस निबन्ध में उपदेशपद का संक्षिप्त अध्ययन कर इसमें व्यक्त आचार्य हरिभद्र के विचारों को उनके द्वारा प्रस्तुत कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। ..
वस्तुत: प्राकृत-भाषा भारत की प्राचीनतम उन भाषाओं में से एक है जिसे अनेक भाषाओं की जननी होने का गौरव प्राप्त है। यह वह भाषा है, जिसके साहित्य में जीवन की समस्त भावनाएँ व्यञ्जित हुई हैं। भारतीय शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता, समाज, धर्म एवं आध्यात्म आदि का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्राकृत-साहित्य का अध्ययन बहुत आवश्यक है। प्राकृत-भाषा और साहित्य तो जैनधर्म का प्राण है। यही कारण है कि जैनाचार्यों ने आचार, विचार, व्यवहार, सिद्धान्त एवं आध्यात्म को सरल रूप में समझाने एवं तदनुकूल जीवन ढालने की दृष्टि से प्राकृत-भाषा में उपदेश-प्रधान धर्मकथा-विषयक-साहित्य का प्रणयन किया और नैतिक उपदेश, मर्मस्पर्शी कथन एवं लोकपक्ष का उद्घाटन करते समय सरल, स्निग्ध तथा मनोरम शैली का उपयोग किया।
उपदेशप्रधान कथा-साहित्य की समृद्ध एवं गौरवपूर्ण-परम्परा है। धर्मदासगणि विरचित उपदेशमाला, हरिभद्रसूरि का उपदेशपद, जयसिंहसूरि का धर्मोपदेशमालाविवरण, जयकीर्ति का शीलोपदेशमाला, मलधारी हेमचन्द्रसूरि की भवभावना तथा उपदेशमालाप्रकरण, जिनचन्द्रसूरि की संवेगरंगशाला, आसद्कृत विवेकमञ्जरी, मुनिसुन्दरसूरिकृत उपदेशरत्नाकर तथा शुभवर्धनगणिकृत वर्धमानदेशना आदि प्रमुख ग्रन्थ उपदेश-प्रधान कथाओं के अनुपम संग्रह हैं।
उपदेशपद के रचयिता आचार्य हरिभद्रसूरि बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इन्होंने बी०एल० इस्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, दिल्ली में आचार्य हरिभद्र पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत शोध आलेख।
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