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यशस्तिलक चम्पू में आयुर्वेदीय स्वस्थवृत्त सम्बन्धी विषय
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उपर्युक्त विवेचन के पश्चात् सोमदेव ने ऋतुओं के अनुसार रसों का सेवन कम-ज्यादा मात्रा में करने का निर्देश किया है। उनके अनुसार वैसे छहों रसों का व्यवहार सर्वदा सुखकर होता है (श्लोक ३२८-२९, पृ० ५०९)।
भोजन के विषय में और भी अनेक प्रकार की ज्ञातव्य बातों का उल्लेख यशस्तिलक में किया गया है जिनका अति संक्षेपत: यहाँ उल्लेख किया जा रहा है। मूल ग्रन्थ में पृ० ५१० पर श्लोक ३३० से ३४४ तक विशद रूप से इसका विवेचन किया है।
आहार, निद्रा और मलोत्सर्ग के समय शक्ति तथा बाधायुक्त मन होने पर अनेक _प्रकार के बड़े-बड़े रोग हो जाते हैं (श्लोक ३३४, पृ० ५१०)।
भोजन करते समय उच्छिष्ट भोजी, दुष्ट प्रवृत्ति, रोगी, भूखा तथा निन्दनीय व्यक्ति पास में नहीं होना चाहिये (श्लोक ३३५, पृ० ५१०)। विवर्ण, अपक्व, सड़ा, गला, विगन्ध, विरस, अतिजीर्ण, अहितकर तथा
अशुद्ध अन्न नहीं खाना चाहिये (श्लोक ३३६, पृ० ५१०)। - हितकारी, परिमित, पक्व, क्षेत्र, नासा तथा रसना इन्द्रिय को प्रिय लगने वाला,
सुपरीक्षित भोजन न जल्दी-जल्दी और न धीरे-धीरे अर्थात् मध्यम गति से करना चाहिये (श्लोक ३३७, पृ० ५२०)। विषयुक्त भोजन को देखकर कौआ और कोयल विकृत शब्द करने लगते हैं, बकुल और मयूर आनन्दित होते हैं, क्रौंच पक्षी अलसाने लगता है, ताम्रचूड़ (मुर्गा) रोने लगता है, तोता वमन करने लगता है, बन्दर मलत्याग कर देता है, चकोर के नेत्र लाल हो जाते हैं, हंस की चाल डगमगाने लगती है और भोजन पर मक्खियां नहीं बैठती। जिस प्रकार नमक डालने से अग्नि चटचटाती है उसी प्रकार विषयुक्त अन्न के सम्पर्क से भी अग्नि चटचटाने लगती है (श्लोक ३३८-४०, पृ० ५१०)। पुन: गर्म किया हुआ भोजन, अंकुर निकला हुआ अन्न तथा दस दिन तक कांसे के बर्तन में रखा गया घी नहीं खाना चाहिये। दही व छाछ के साथ केला, दूध के साथ नमक, कांजी के साथ कचौड़ी-जलेबी, गुड़, पीपल, मधु तथा मिर्च के साथ काकमाची मकोय), मूली के साथ उड़द की दाल, दही की तरह गाढा सत्तू तथा रात्रि में कोई भी तिल विकार (तिल से बने पदार्थ) नहीं खाना चाहिये (श्लोक ३४१-४४, पृ० ५१०)। घृत एवं जल को छोड़कर रात्रि में बने हुए पदार्थ, केश या कीटयुक्त पदार्थ तथा फिर से गरम किया हुआ भोजन नहीं करना चाहिये।
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