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श्रमण
पूज्यश्री जिनेन्द्र वर्णीजी महाराज की उन्यासीवीं जन्म-जयन्ती (१४ मई)
एवं सत्रहवें समाधि-दिवस (२४ मई) पर विशेष लेख श्री जिनेन्द्र वर्णीजी द्वारा प्रणीत ‘पदार्थ विज्ञान'
और उसकी विवेचन-शैली
डॉ० कमलेशकुमार जैन
आज से अठहत्तर वर्ष पूर्व १४ मई सन् १९२१ को जन्मे एवं २४ मई सन् १९८३ को मात्र बासठ वर्ष की उम्र में समाधि को प्राप्त पूज्य श्री जिनेन्द्र वर्णीजी महाराज का जीवन साधनामय रहा है। कृशकाय होते हए भी उन्होंने अपना आधे से अधिक उत्तरार्द्ध का जीवन जैन एवं जैनेतर वाङ्मय के अध्ययन और तत्पश्चात् लेखन में बिताया।
जैनधर्म के प्रति अगाध श्रद्धालु एवं संस्कार सम्पन्न पिता श्री जयभगवानदास जी, एडवोकेट का निर्देशन तथा पानीपत के सुप्रद्धि विद्वान् पं० रूपचन्द्र जी गार्गीय की प्रेरणा भद्रपरिणामी श्री जिनेन्द्र वर्णीजी के बहुमुखी व्यक्तित्व को सजाने-सँवारने में सहायक रही है।
पूज्य वर्णीजी ने स्वाध्याय, मनन और चिन्तन के पश्चात् जो कुछ भी लिखा, वह सब अद्वितीय है। क्योंकि उनके लेखन में बहुश्रुतता के साथ ही शोध एवं स्वानुभव का विशेष पुट रहा है। उनकी तपःपूत लेखनी से 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' जैसे ग्रन्थ का प्रणयन उनकी अद्भुत क्षमता का श्रेष्ठ निदर्शन है।
पूज्य वर्णीजी का जीवन धर्ममय रहा है, अत: उन्होंने धर्म की परिभाषा विस्तार से की है और उन्होंने स्वीकार किया है कि- जीवन का सार सुख एवं शान्ति है। . *. जैनदर्शन प्राध्यापक, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,
वाराणसी-५।
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