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श्रमण / अप्रैल-जून/ १९९९
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रत्नसागरसूरि ↓
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विवेकसागरसूरि ↓
जिनेन्द्रसागरसूरि ↓
गौतमसागरसूरि ↓
गुणसागरसूरि
↓ गुणोदयसागरसूर
(वि० सं० १९२८ में स्वर्गस्थ )
(वि० सं० १९४८ में स्वर्गस्थ )
(वि० सं० २००४ में स्वर्गस्थ )
(वि० सं० २००९ में स्वर्गस्थ )
(वि० सं०
में स्वर्गस्थ )
(वर्तमान गच्छाधिपति)
अंचलगच्छ के आदिम आचार्य आर्यरक्षितसूरि द्वारा रचित कोई भी कृति नहीं मिलती और न ही इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख ही प्राप्त होता है। यही बात इनके शिष्य एवं पट्टधर यशश्चन्द्रगणि अपरनाम जयसिंहसूरि के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है, किन्तु इस गच्छ के तृतीय पट्टधर आचार्य धर्मघोषसूरि द्वारा रचित ऋषिमण्डल * एवं शतपदी" अपरनाम प्रश्नोत्तरपद्धति नामक कृति का उल्लेख मिलता है। शतपदी पर उनके विद्वान् शिष्य एवं प्रसिद्ध रचनाकार महेन्द्रसिंहसूरि ने शतपदीसमुद्धार ६ नाम से संस्कृत भाषा में वृत्ति की रचना की, जिसकी प्रशस्ति में उन्होंने अंचलगच्छ की उत्पत्ति तथा अपने पूर्वाचार्यों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है :
"बृहद्गच्छ में सर्वदेवसूरि नामक एक आचार्य हुए जिनकी परम्परा में आगे चलकर यशोदेवसूरि हुए जिनके शिष्य जयचन्दसूरि ने चन्द्रावती नगरी में अपने नौ शिष्यों – शान्तिसूरि, देवसूरि, चन्द्रप्रभसूरि, शीलगुणसूरि, पद्मदेवसूरि, भद्रेश्वरसूरि, मुनिचन्द्रसूरि, बुद्धिसागरसूरि और मलयचन्द्रसूरि को एक साथ आचार्य पद प्रदान किया। जयचन्द्रसूरि के एक शिष्य उपाध्याय विजयचन्द्र हुए, जो पहले अपने मामा शीलगुणसूरि के साथ पूर्णिमागच्छ में सम्मिलित हुए पर बाद में उनसे अलग होकर वि०सं० ११६९ में इन्होंने विधिपक्ष की स्थापना की। इनके शिष्य यशश्चन्द्रगणि हुए, जिन्हें वि०सं० १२०२ / ई०स० ११४६ में आचार्य पद प्रदान किया गया और वे जयसिंहसूरि के नाम से विख्यात हुए। इनके शिष्य एवं पट्टधर धर्मघोषसूरि हुए जिन्होंने वि०सं० १२६३/ ई०स० १२०७ में शतपदी अपरनाम प्रश्नोत्तरपद्धति नामक कृति की रचना की। उक्त कृति पर वि०सं० १२९४ / ई० स० १२३८ में संस्कृत भाषा में शतपदीसमुद्धार नामक कृति के रचनाकार महेन्द्रसिंहसूरि इन्हीं धर्मघोषसूरि के शिष्य थे । ७
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