Book Title: Sramana 1999 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 122
________________ विधिपक्ष अपरनाम अंचलगच्छ (अचलगच्छ) का संक्षिप्त इतिहास : ११९ २३ धर्मशेखरगणि ने वि०सं० १४८३ / ई०स० १४२७ में टीका की रचना की । २१ आचार्य कलाप्रभसागरसूरि ने जयशेखरसूरि द्वारा रचित ५२ कृतियों का सविस्तार उल्लेख किया है । २२ जयशेखरसूरि द्वारा रचित विभिन्न स्तुतियां भी मिलती हैं। जयशेखरसूरि के एक शिष्य मेरुचन्द्रगणि हुए जिनके उपदेश से विराटनगर के मन्त्री वाडव ने रघुवंश, कुमारसम्भव आदि महाकाव्यों तथा योगप्रकाश, वीतरागस्तोत्र, विदग्धमुखमण्डन आदि पर अवचूरि की रचना की। २४ जीरापल्लीपार्श्वनाथस्तोत्र भी इन्हीं की कृति है । २५ इसी मन्त्री ने वि०सं० १५०९ वैशाख सुदि १३ को एक जिनबिम्ब की भी प्रतिष्ठा की । २६ महेन्द्रप्रभसूरि के शिष्य एवं पट्टधर मेरुतुंगसूरि अपने समय के मूर्धन्य विद्वानों में से एक थे। इनके द्वारा रचित अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियां प्राप्त होती हैं जिनमें षट्दर्शनसमुच्चय, लघुशतपदी, जैनमेघदूतम, नेमिदूतमहाकाव्य, कातंत्रव्याकरणबालावबोधवृत्ति आदि उल्लेखनीय हैं । २७ इनके उपदेश से कई नूतन जिनालयों का निर्माण हुआ और बड़ी संख्या में जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हुई। ये प्रतिमायें वि०सं० १४४५ से वि०सं० १४७० तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है लेखांक ४० वि.सं. १४४५ वि.सं. १४४६ वि.सं. १४४७ वि.सं. १४४७ वि.सं. १४४९ Jain Education International कार्तिक वदि ११ रविवार ज्येष्ठ वदि ३ सोमवार फाल्गुन सुदि ९ सोमवार फाल्गुन सुदि ९ सोमवार जै. धा. प्र.ले.सं. भाग २ एवं अं.ले.सं. आषाढ सुदि २ गुरुवार प्र.ले.सं. एवं अं.ले.सं. अं.ले.सं. एवं जै. ले. सं० भाग १, और जै. धा. प्र.ले. For Private & Personal Use Only लेखांक ७ लेखांक १७१ लेखांक ८, ५११ लेखांक ९ ४०१, अं.ले.सं. एवं जै. ले० सं०, भाग १ लेखांक ६२८ अं.ले.सं. लेखांक ५१२ लेखांक ११ लेखांक ९३ लेखांक ५२ www.jainelibrary.org

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