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श्रमण/अप्रैल-जून/ १९९९
अष्टक
५. अगडदत्तरास
६. पार्श्वनाथ सहस्रनाम ७. मिश्रलिंगकोश
८. मिश्रलिंगकोशविवरण ९. पार्श्वनाथअष्टोत्तरशतनाम १०. माणिक्यस्वामीस्तवन ११. संभवजिनस्तवन
१२. सुविधिनाथजिनस्तवन १३. शांतिजिनस्तवन
१४. अन्तरिक्षपार्श्वनाथस्तवन १५. गौडीपार्श्वनाथअष्टक १६. दादापार्श्वनाथस्तवन १७. कलिकुण्डपार्श्वनाथअष्टक १८. रावणपार्श्वनाथअष्टक १९.श्रीगौडीपुरस्तवन
२०. श्रीपार्थजिनस्तवन २१. श्रीमहुरपार्श्वनाथअष्टक २२. श्रीसत्यपुरीयमहावीरस्तवन २३. श्रीगौडीपार्श्वस्तवन २४. श्रीवीराष्टक २५.श्रीलोणनपार्श्वस्तवन २६. श्रीसेरीसपार्श्वनाथअष्टक २७. श्रीसंभवनाथअष्टक २८. श्रीचिन्तामणिपार्श्वजिनस्तोत्र २९. श्रीसौरीपुरनेमिनाथस्तवन ३०. श्रीशांतिनाथस्तवन ३१. श्रीपार्श्वनाथस्तवन
३२. श्रीशांतिजिनस्तवन। आचार्य कल्याणसागरसूरि की प्रेरणा से प्रतिष्ठापित जिन प्रतिमायें भी बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं जो वि०सं० १६६७ से लेकर वि०सं०१७१८ तक की हैं। इनके विस्तृत विवरण के बारे में द्रष्टव्य- अंचलगच्छीयलेखसंग्रह।
कल्याणसागरसूरि के विभिन्न शिष्यों-प्रशिष्यों का उल्लेख प्राप्त होता है। इनके प्रशिष्य एवं पुण्यमन्दिर के शिष्य उदयमन्दिर हुए जिनके द्वारा वि०सं० १६७५/ई०स० १६१९ में मरु-गुर्जर भाषा में रचित ध्वजभुजंगआख्यान नामक कृति मिलती है। ७९ इसी प्रकार इनके एक अन्य प्रशिष्य एवं देवसागर के शिष्य उत्तमचन्द्र ने वि०सं० १६९५/ई०स० १६२९ में सुनन्दारास की रचना की।८° कल्याणसागरसूरि के तीसरे प्रशिष्य एवं गुणचन्द्र के शिष्य विवेकचन्द्र ने वि०सं० १६९७/ई०स० १६३१ में मरु-गूर्जर भाषा में सरपालरास की रचना की।८१ कल्याणसागरसूरि के शिष्य मतिनिधानगणि द्वारा वि० सं० १६७१/ई०स० १६१५ में पुण्यपालकथानक एवम् इसी के आस-पास नेमिनाथछन्द की प्रतिलिपि की गयी।८२ वि०सं० १६६६/ई०स० १६१० में मरु-गूर्जर भाषा में दयाशील नामक एक अंचलगच्छीय मुनि द्वारा रचित ईलाचीकेवलीरास की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि रचनाकार के गुरु विजयशील
स्तवन
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