Book Title: Sramana 1999 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 187
________________ श्रमण / अप्रैल-जून/ १९९९ संस्कृत काव्य के विकास में बीसवीं शताब्दी के जैन मनीषियों का योगदान, लेखक - डॉ० नरेन्द्र सिंह राजपूत, प्रकाशक- आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र, व्यावर एवं श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, मंदिर संघी जी, सांगानेर, जयपुर, प्रथम संस्करण १९९६ ई०, पृष्ठ १६ + ३०४; आकार -- डिमाई, मूल्य ५० रुपये मात्र । १८४ : प्रस्तुत पुस्तक डॉ० श्री नरेन्द्र सिंह राजपूत द्वारा सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ० भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' के निर्देशन में लिखे गये शोधप्रबन्ध का मुद्रित रूप है जिस पर सागर विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डाक्टरेट की उपाधि प्रदान की गयी। शोधप्रबन्ध ६ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में संस्कृत साहित्य का अन्तःदर्शन प्रस्तुत किया गया है। जिसके अन्तर्गत संस्कृत साहित्य के आर्विभाव तथा विकास, संस्कृत का महत्त्व, संस्कृत साहित्य का उद्भव एवं विकास, संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं आदि का विस्तृत परिचय दिया गया है। द्वितीय अध्याय में बीसवीं शताब्दी में जैन काव्य साहित्य का अन्तर्विभाजन है। इसके अन्तर्गत इस शताब्दी के संस्कृत साहित्य को तीन खंडों- मौलिक रचनायें, टीका ग्रन्थ एवं अन्य ग्रन्थ में विभाजित किया गया है। तृतीय अध्याय में बीसवीं शताब्दी के साधु-साध्वियों द्वारा प्रणीत प्रमुख जैन काव्यों का अनुशीलन प्रस्तुत किया गया है। चतुर्थ अध्याय में इस शताब्दी के मनीषियों द्वारा प्रणीत प्रमुख जैन काव्यों का अनुशीलन है। पंचम अध्याय में बीसवीं शताब्दी के जैन काव्यों का लगभग १०० पृष्ठों में साहित्यिक एवं शैलीगत अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। षष्ठ अध्याय में बीसवीं शताब्दी के संस्कृत जैन काव्यों का वैशिष्ट्य प्रदेय तथा तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अनुशीलन है । अन्त में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एक परिशिष्ट भी है जिसके अन्तर्गत १०६ ग्रन्थों की विस्तृत सूची दी गयी है । जैन वाङ्मय अखिल भारतीय वाङ्मय का एक समृद्ध और सुसंस्कृत भण्डार है। आधुनिकयुगीन संस्कृत साहित्य पर वर्तमान में नगण्य शोधकार्य हुआ है। जैन काव्य साहित्य के अध्ययन-अ - अनुशीलन की स्थिति तो और भी चिन्ताजनक रही है। विद्वान् लेखक ने अत्यन्त श्रमपूर्वक इस शताब्दी के अनेक ऐसे रचनाकारों और उनकी रचनाओं को समाज के सम्मुख रखा है, जिसके बारे में लोगों को पहले कोई जानकारी न थी । आज शोधकार्य तो बहुत हो रहे हैं, परन्तु प्रामाणिक शोधकार्य तो इने-गिने ही होते हैं और यह शोधप्रबन्ध इसी कोटि में आता है। ऐसे प्रामाणिक शोधप्रबन्ध के लेखन एवं प्रकाशन के लिये लेखक और प्रकाशक संस्था दोनों ही बधाई के पात्र हैं। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक तथा मुद्रण भी प्रायः निर्दोष है। ऐसा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रत्येक पुस्तकालयों के लिये संग्रहणीय और संस्कृत साहित्य के प्रत्येक शोधार्थियों के लिये पठनीय है। हमें विश्वास है कि विद्वान् लेखक भविष्य में भी इसी प्रकार जैन साहित्य पर प्रामाणिक ग्रन्थों का प्रणयन करते रहेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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