Book Title: Sramana 1999 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 190
________________ साहित्य-सत्कार : १८७ “मैं बहुत बार; सरलता और सादगी में ठगाया गया हूँ, लेकिन यही सुख है कभी किसी को ठगा नहीं जीवन में।" वस्तुतः इस पुस्तक में दी गयी सभी कवितायें हमें एक नया संदेश देती हैं। पुस्तक की साज-सज्जा अत्यन्त आकर्षक व मुद्रण निर्दोष है। श्रेष्ठ कागज पर मुद्रित इस ग्रन्थ के व्यापक प्रचार-प्रसार हेतु इसका मूल्य लागत मात्र ही रखा गया है जो निश्चय ही प्रकाशक एवं वितरक की उदारता का परिचायक है। पुस्तक सभी के लिये पठनीय और मननीय है। The Samdesarasaka -- Abdul Rahaman : Translated by C.M. Mayrhofer : Motilal Banarasidass Publishers Private Limted, Delhi 1998: P- 16+259; Prise Rs. 400. अपभ्रंश भाषा के कवियों में महाकवि अब्दुल रहमान का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनका समय विक्रम संवत् की तेरहवीं शती माना जाता है। वे प्रथम मुस्लिम कवि हैं जिन्होंने एक भारतीय भाषा- अपभ्रंश- को अपनी रचना का माध्यम बनाया। सन्देशरासक एक दूतकाव्य है और इसका आधारस्रोत महाकवि कालिदास का प्रसिद्ध दूतकाव्य 'मेघदूत' है। सन्देशरासक* का सम्पूर्ण कलेवर तीन भागों में विभाजित है। प्रथम भाग में काव्य की प्रस्तावना है। कथा का प्रारम्भ द्वितीय भाग से होता है। तृतीय भाग में नायिका (नाम- अज्ञात) अपने स्वामी का पत्र लेकर 'मूलस्थान' (मुलतान) से खम्भात जाते हुए पथिक को आग्रहपूर्वक रोककर उससे अपने खम्भात प्रवासी अनाम पति के पास अपना विरह सन्देश पहुंचाने का अनुरोध करती है। इसी क्रम में वह छ: ऋतुओं में होने वाली अपनी दारुण कामदशा का वर्णन करती है। ऋतुचक्र का वर्णन पूर्ण हो जाने के बाद विरहिणी नायिका पथिक को आशीर्वचन के साथ विदा करती है। पथिक के जाते ही उस विरहिणी युवती को दक्षिण दिशा से आता हुआ उसका पति दिखाई देता है, जिससे वह हर्षित हो जाती है और इसी के साथ कृति भी समाप्त हो जाती है। सन्देशरासक प्रथम बार मुनि जिनविजय के सम्पादन में प्रख्यात सिंघी जैन ग्रन्थमाला में प्रकाशित हुई थी। प्रस्तुत पुस्तक में एक ओर मूलपाठ तथा दूसरी ओर *. सन्देशरासक का उक्त परिचय डॉ० श्रीरंजनसूरिदेव द्वारा लिखित व श्रमण वर्ष ४६, अंक १०-१२, पृष्ठ २४-२७ पर प्रकाशित लेख– “संदेशरासक में पर्यावरण के तत्त्व'' के आधार पर दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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