Book Title: Sramana 1999 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 185
________________ १८२ : श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९ इसकी कथा तथा कथनशैली पर प्रकाश डाला गया है। द्वितीय अध्याय में इस बृहत्कथा में विन्यस्त विविध कथाओं का विवेचन किया है। तृतीय अध्याय में वसुदेवहिण्डी में वर्णित पारम्परिक विद्याओं का आलोचनात्मक विवेचन ब्राह्मण एवं श्रमण परम्परा की तुलना में प्रस्तुत किया गया है। चतुर्थ अध्याय वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित तत्कालीन भारतीय जनजीवन और संस्कृति का भव्य चित्र प्रस्तुत करता है। पाँचवें अध्याय में वसुदेवहिण्डी का भाषिक एवं साहित्यिक मूल्याङ्कन बड़े विद्वत्तापूर्ण ढंग से विवेचित है। निष्कर्षत: इस श्रेष्ठ ग्रन्थ के प्रणेता ने सिद्ध किया है कि यह महत्कथाकृति भारतीय औपन्यासिक कथा-साहित्य के पार्यन्तिक और पांक्तेय आदिग्रन्थों में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। लेखक ने इस ग्रन्थ को कथाविधा के अन्तर्गत स्वीकार करते हुए इसके साहित्यिक सौन्दर्य का साहित्यशास्त्रीय और सौन्दर्यशास्त्रीय मानदण्डों पर विशद् विवेचन प्रस्तुत करके जैन वाङ्मय को समृद्ध किया है। डॉ० जगदीशचन्द्र जैन ने वसुदेवहिण्डी का आंग्ल रूपान्तरण सन् १९७७ ई० में करके सामान्य पाठकों (प्राकृत न जानने वाले) के लिए अध्ययन का मार्ग खोला था। डॉ० श्रीरंजनसूरिदेव ने उसका हिन्दी में विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत करके इसे सर्वसुलभ बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न किया है, एतदर्थ वे पाठकों के साधुवाद और बधाई के पात्र हैं। डॉ० शितिकण्ठ मिश्र पूर्व प्राचार्य, डी०ए०वी० डिग्री कालेज,वाराणसी। संवेग और आहार - लेखिका- (डॉ० ) अर्चना जैन; प्रकाशक, ज्ञानोदय विद्यापीठ, भोपाल, प्रथम संस्करण १९९८ ई०, पृष्ठ ६+१२; आकार-डिमाई, मूल्य-२५ रुपये मात्र। प्रस्तुत पुस्तक डॉ० अर्चना जैन द्वारा लिखित और सागर विश्वविद्यालय द्वारा पी-एच०डी० की उपाधि के लिये स्वीकृत शोधप्रबन्ध का मुद्रित रूप है। वस्तुत: जैसा व्यक्ति का आहार होता है वैसा ही उसका विचार भी हो जाता है। यदि व्यक्ति शाकाहारी है तो उसका विचार भी सात्विक होगा और इसके विपरीत मांसाहारी व्यक्ति का विचार भी कलुषित होता है। आज जब सम्पूर्ण विश्व में शाकाहार अपनाने पर बल दिया जा रहा है, वहीं अपने देश में मांसाहार का दिनों-दिन प्रचार बढ़ता जा रहा है। नित्य नये-नये यान्त्रिक कत्लखाने खुल रहे हैं। इसका दुष्परिणाम मानव के नैतिक पतन और पर्यावरण के असंतुलन के रूप में हमारे सामने है। नित्य नई-नई समस्यायें उत्पन्न हो रही हैं और उनका कुछ भी निदान नहीं हो पा रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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