Book Title: Sramana 1999 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 160
________________ आधुनिक सन्दर्भो में तीर्थङ्कर-उपदेशा की प्रासङ्गिकता : १.७ खाये जा रहे हैं। इन समस्याओं का निराकरण मानव समाज के सामने सबसे बड़ी चुनोती है। आज चारों ओर स्वर बुलन्द हो रहा है कि सामाजिक बुराइयाँ बढ़ रही है। समाज का ढाँचा विकृतियों के दबाव से चरमरा रहा है। इस दिशा में गहराई से चिन्तन करें तो आज की सारी समस्याएँ चाहे आर्थिक क्षेत्र की हो, या राजनैतिक अथवा सामाजिक, उन्हे तीर्थङ्करों के मतों की प्रकृति द्वारा समाप्त किया जा सकता है। समतदंसी ण करेई पावं४ - अर्थात् समदर्शी कभी पाप नहीं करते। आज पारस्परिक सद्भावना के अभाव में व्यक्ति क्रूर हो गया है। वह प्राणियों की हिंसा करता है, धोखा, लूट, मिलावट और रिश्वत से अपार धन संग्रह करता है, जिस कारण समाज में अकर्मण्यता तथा विसंगतियाँ हो गई और समाज में असमानता उत्पन्न होने लगी है। ऐसी स्थिति में यदि प्रत्येक व्यक्ति मंसं च मंसं व का उदाहरण अपनाने का संकल्प कर ले तो आज के सन्दर्भ में तीर्थङ्करों द्वारा उपदिष्ट वाणी की महत्ता विशेष रूप से सार्थक हो सकती है। इच्छा परिणाम५ -- आज आर्थिक समस्या को सुलझाने के लिए अनेक प्रयत्न किये जा रहे हैं। यदि उन प्रयत्नों के साथ-साथ शुद्धि और व्यक्तिगत उपभोग का संयमये दो बातें और जोड़ दी जाये तो निश्चित ही इस समस्या के समाधान में अध्यात्म का बहत बड़ा योग होगा। भगवान महावीर ने गृहस्थों की नैतिक-संहिता में जो नियम निश्चित किये थे, उनसे सामाजिक-व्यवस्था को एक ठोस आधार मिल सकता है। ___ आज विषमता से सम्पूर्ण समाज पीड़ित है। अर्थशास्त्र को जानने वाले कुछ लोग कहते हैं कि इच्छाओं का विकास नहीं होगा तो उत्पादन नहीं बढ़ेगा। उत्पादन नहीं बढ़ेगा तो समाज समृद्ध नहीं होगा। इसलिए इच्छाओं को बढ़ाना जरूरी है, परन्तु अपरिमित इच्छाओं का होना समस्याओं को बढ़ावा देना है। वर्ग-संघर्ष और वर्ग-भेद का सिद्धान्त इसी आधार पर उत्पत्र हुआ है। एक ओर शक्तिशाली और साधन-सम्पन्न समाज था। उसने पदार्थों का इतना संग्रह कर लिया कि साधनविहीन, कमजोर और अशिक्षित समाज के पास कुछ रहा ही नहीं। ऐसी स्थिति में वर्ग-संघर्ष के कारण सारी समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। इसी वर्ग-संघर्ष को रोकने के लिए आचार्य सोमदेव ने लिखा है - 'समता परमं आचरणम्'। आचार का सबसे बड़ा सूत्र है - समता, साम्यभाव या समानता। यह केवल समाजवाद या साम्यवाद का ही सूत्र नहीं है, अपितु चिन्तन की अच्छाई का सूत्र है, वहाँ समाज का विकास होता है और जहाँ समाज की आचारधारा में विषमता होती है, वहाँ उसका पतन सुनिश्चित होता है। आचार के परिष्कार का ही अर्थ है - समता का विकास। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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