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श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९
प्रवृत्ति प्रर्वतक धर्म
निवृत्ति निवर्तक धर्म आत्मोपलब्धि
अलौकिक शक्तियों की उपासना
समर्पणमूलक यज्ञमूलक चिन्तन प्रधान देहदण्डनमूलक भक्ति-मार्ग कर्म-मार्ग ज्ञान-मार्ग तप-मार्ग
इस प्रकार प्रवर्तक धर्म में प्रारम्भ में जैविक मूल्यों की प्रधानता रही, वेदों में जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित प्रार्थनाओं के स्वर अधिक मखर हए है। उदाहरणार्थ- हम सौ वर्ष जीवं, हमारी सन्तान बलिष्ठ होवे, हमारी गाय अधिक दृध देवें, वनस्पति प्रचुर मात्रा में हों आदि। इसके विपरीत निवर्तक धर्म ने जैविक मूल्यों के प्रति एक निषेधात्मक रुख अपनाया, उन्होंने सांसारिक जीवन की दुःखमयता का राग अलापा। उन्होंने संसार ओर शरीर दानों से ही मुक्ति को जीवन-लक्ष्य माना। उनकी दृष्टि में देहिक आवश्यकताओं का निषेध, अनासक्ति, विराग और आत्म-संतोष है सर्वोच्च जीवन-मूल्य है।
तीर्थङ्करों के उपदेशों का आध्यात्मिक, सामाजिक एवं व्यक्तिगत जीवन में जो प्रभाव पड़ा वह जैन धर्म का भारत ही नहीं वरन् विश्व को विशिष्ट अवदान है। समग्र रूप से देखा जाय तो उनके उपदेशों में आध्यात्मिक मूल्य की प्रधानता, निषधक जीवन-दृष्टि, व्यष्टिवाद, व्यवहार में नैष्कर्म्यता और दृष्टि में पुरुषार्थ का समर्थन, अनीश्वरवाद, वैयक्तिक प्रयास पर बल, कर्मसिद्धान्त का समर्थन, आन्तरिक विशुद्धता पर बल, जीवन का मोक्ष एवं निर्वाण की प्राप्ति, जातिवाद का विरोध, वर्णव्यवस्था का केवल कर्मणा आधार पर समर्थन, संन्यास जीवन की प्रधानता, एकाकी जीवन शैली, जनतन्त्र का समर्थन, सदाचारी की पूजा, ध्यान और तप की प्रधानता दृष्टिगोचर होती है।
इस प्रकार तीर्थङ्करों ने संयम, ध्यान और तप की सरल साधना पद्धति का विकास किया एवं वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद और ब्राह्मण संस्था के वर्चस्व का विरोध किया।
जैन संघ-श्रमण-श्रमणी और श्रावक-श्राविका में सभी वर्ग के लोगों को समान स्थान मिला। राज्य संस्था की दृष्टि से तीर्थङ्करोपदिष्ट धर्म ने जनतन्त्र का समर्थन किया।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सम्पूर्ण विश्व अशान्त एवं तनावपूर्ण स्थिति में है। भौतिक सुख-सुविधाओं का अम्बार मानव मन को सन्तुष्टि एवं आन्तरिक सुख नहीं प्रदान कर पाया है। समाज में दूरी बढ़ रही है। संक्षेप में कहा जाय तो मानसिक, अन्तर्द्वन्द्व, सामाजिक एवं जातीय संघर्ष, वैचारिक संघर्ष एवं आर्थिक संघर्षरूपी दानव समाज को
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