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१४४ : श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९ १८७४ में पाटण के फोफलियावाडो में विक्रमचौपाई की प्रतिलिपि की। १०५ वि० सं०१८७० में पुण्यसागरसूरि का पाटण में देहान्त हुआ, तत्पश्चात् राजेन्द्रसागरसूरि ने अंचलगच्छ का नायकत्व ग्रहण किया। वि० सं० १८८१ में इनके उपदेश से संभवनाथ जिनालय, सूरत में अजितनाथ की धातुप्रतिमा की प्रतिष्ठा की गयी जो आज भी वहाँ विद्यमान है। १०६ वि०सं० १८८६ में शजयगिरि पर इनके उपदेश से एक जिनप्रासाद
का निर्माण हुआ।१०७ मुम्बई का प्रसिद्ध अनन्तनाथजिनालय वि०सं० १८८९ में निर्मित हुआ। यहाँ प्रतिष्ठा के समय राजेन्द्रसागरसूरि जी विद्यमान थे।
इनके समय में अंचलगच्छीय मुनिजनों में श्रमणाचार लुप्तप्राय हो गया था और यति-गोरजी (गुरुजी) लोग अपने-अपने स्थानों पर पोषाल बनवाकर स्थायी रूप से रहने लगे और ज्योतिष, वैद्यक, भूस्तर, गणित, व्याकरण आदि विषयों में निपुण होकर समाज से स्थायी रूप से जुड़ गये। १०९
राजेन्द्रसागरसूरि के निधन के पश्चात् वि०सं० १८९२ में मुक्तिसागरसूरि अंचलगच्छ के २५वें पट्टधर बने। इनके उपदेश से वि०सं० १८९३ में श्रेष्ठी खीमचन्द्र मोतीचन्द्र ने शत्रुजयतीर्थ पर ट्रंक का निर्माण कराया। इस अवसर पर ७०० जिन प्रतिमाओं की अंजनशलाका सम्पन्न हुई। ११° कच्छ प्रान्त के नलीया नामक स्थान पर श्रेष्ठी नरसीनाथा ने चन्द्रप्रभ जिनालय का निर्माण कराया और वि० सं० १८९७ में मुक्तिसागरसूरि की निश्रा में उसमें प्रतिमा प्रतिष्ठापित की गयी। १११ मुम्बई स्थित अजितनाथ जिनालय के निर्माण और विकास में उक्त श्रेष्ठी का विशिष्ट योगदान रहा। पट्टावलियों के अनुसार ५७ वर्ष की आयु में वि०सं० १९१४ में मुक्तिसागरसूरि का देहान्त हुआ तत्पश्चात् रत्नसागरसूरि अंचलगच्छ के नायक बने। इनके उपदेश से कच्छ प्राप्त के. कोठारा तथा अन्य स्थानों पर छोटे-बड़े विभिन्न जिनालयों और उपाश्रयों का निर्माण कराया गया। वि० सं० १९२८ में इनका देहान्त हुआ।११२
रत्नसागरसूरि के पश्चात् विवेकसागरसूरि ने अंचलगच्छ का नायकत्व ग्रहण किया। इनके समय तक अंचलगच्छ में श्रमणाचार पूर्णरूपेण लुप्त हो जाने से शिथिलाचार बढ़ गया था तथापि इनके उपदेश से श्रावकों ने अनेक प्राचीन और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ तैयार करवायीं और कच्छ प्रान्त के कोडाप नामक स्थान पर एक ग्रन्थ भंडार की स्थापना की। ११३ इनके समय में भी विभिन्न जिनालयों का जीर्णोद्धार-पुननिर्माण कार्य सम्पन्न हुआ। वि० सं० १९४८ में इनका निधन हुआ, तत्पश्चात् जिनेन्द्रसागरसूरि गच्छनायक बनाये गये। वि०सं० १९५१ में ये कच्छ पधारे
और वहाँ विभिन्न स्थानों पर चातुर्मास किया। वि०सं० २००४ में संक्षिप्त बीमारी के कारण इनका देहान्त हुआ और इन्हीं के साथ अंचलगच्छ में शिथिलाचार के रूप में व्याप्त श्रीपज्य और गोरजी की परम्परा भी सदैव के लिए समाप्त हो गयी।११४
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