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श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९
चूंकि उक्त कृतियों की प्रशस्तियाँ मुझे उपलब्ध नहीं हो सकी हैं अत: इस सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ कह पाना शक्य नहीं है।
वि०सं० १७६२ में अमरसागरसूरि के देहान्त के पश्चात् उनके शिष्य विद्यासागर ने वि०सं० १७६३ में गच्छभार संभाला। इनके उपदेश से भी अंचलगच्छीय श्रावकों ने विभिन्न तीर्थों की यात्रायें की और वहाँ प्राचीन जिनालयों का जीर्णोद्धार कराया एवं नूतन जिनालयों का निर्माण करा उनमें जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की।९२ इन्होंने कच्छ के शासक को प्रभावित कर वहाँ पर्दूषण के दिनों में १५ दिनों के लिये अमारि की घोषणा करवायी।९३ वाचक नित्यलाभगणि ने स्वरचित विद्यासागरसूरिरास में इनके समय की प्रमुख घटनाओं का वर्णन किया है।९५ इनके उपदेश से कच्छ, पाटण, सूरत आदि नगरों में उपाश्रयों का भी निर्माण कराया गया। विद्यासागरसूरि द्वारा रचित कृतियाँ इस प्रकार है१६..१. देवेन्द्रसूरि द्वारा रचित सिद्धपंचाशिका पर वि०सं० १७८१ में ८०० श्लोक
परिमाण गुजराती भाषा में विवरण .. २. संस्कृतमिश्रित हिन्दी भाषा में गौड़ीपार्श्वनाथस्तवन
वि०सं० १७९७ कार्तिक सुदि ५ मंगलवार को कच्छ में इनका देहान्त हुआ। इनके पश्चात् आचार्य उदयसागर जी अंचलगच्छ के नायक बने। वि० सं०१८०२ से वि०सं० १८२६ के मध्य प्रतिष्ठापित प्रतिमा लेखों में प्रतिमा प्रतिष्ठा हेतु प्रेरक के रूप में इनका उल्लेख मिलता है। इनका विवरण इस प्रकार है
वि०सं० १८०२ एक प्रतिमालेख वि०सं० १८१२ एक प्रतिमालेख वि०सं० १८१५ छह प्रतिमालेख वि०सं० १८१७ एक प्रतिमालेख वि०सं० १८२१ एक प्रतिमालेख वि०सं० १८२२ एक प्रतिमालेख वि०सं० १८२३ एक प्रतिमालेख वि०सं० १८२६ एक प्रतिमालेख
इनमें से अधिकांश संभवनाथ जिनालय, गोपीपुरा सूरत में रखी जिनप्रतिमाओं पर उत्कीर्ण हैं। विस्तार के लिये द्रष्टव्य- अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक ३२०-२१, ८०३-२९।
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