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श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९
के पट्टधर देवेन्द्रसूरि के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। अजितसिंहसूरि के एक अन्य शिष्य माणिक्यसिंहसूरि हुए जिनके द्वारा वि०सं० १३३८ में संस्कृत भाषा में ५०७ श्लोकों में रचित शकुनसारोद्धार नामक कृति प्राप्त होती हैं। ११
देवेन्द्रसूरि के पट्टधर धर्मप्रभसूरि हुए जिनके द्वारा वि०सं० १३८७/ई०स० १३३१ में रचित कालकाचार्यकथा नामक कृति प्राप्त होती है। १२ धर्मप्रभसूरि के एक शिष्य रत्नप्रभ हुए जिन्होंने वि०सं० १३९२/ई०स० १३३६ में अन्तरंगसन्धि की अपभ्रंश भाषा में रचना की।१३ वि०सं० १३९३ में धर्मप्रभसूरि का निधन हुआ। इनके पट्टधर सिंहतिलकसूरि हुए जिनके द्वारा रचित कोई भी कृति नहीं मिलती; किन्तु इनके पट्टधर महेन्द्रप्रभसूरि द्वारा रचित जीरापल्लीपार्श्वनाथस्तोत्र नामक एकमात्र कृति आज प्राप्त होती है,१४ जो लिंबडी के जैन भण्डार में संरक्षित है। १५ इस कृति पर उपाध्याय धर्मनन्दनगणि१६ एवं मंत्री वाडवकृत अवचूरि प्राप्त होती है। १७ वि०सं० १४४४/ई०स० १३८८ में पाटण में इनका देहान्त हुआ।
___ महेन्द्रप्रभसूरि के शिष्य परिवार में अनेक विद्वान् मुनिजन हो चुके हैं जिनमें धर्मतिलक, सोमतिलक, मुनिशेखर, मुनिचन्द्र, अभयतिलक, जयशेखर, मेरुतुंगसूरि, अभयदेव, रत्नरंग आदि उल्लेखनीय हैं। इन शिष्यों में मुनिशेखर, जयशेखर और मेरुतुंग विशेष प्रसिद्ध हैं।
राधनपुर स्थित शान्तिनाथजिनालय में रखी सम्भवनाथ की एक प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होता है कि मुनिशेखर के उपदेश से वि०सं० १४६८ में इसकी प्रतिष्ठा हुई थी। श्री पार्श्व ने इस लेख की वाचना१८ दी है, जो इस प्रकार है :
सं० १४६८ वर्षे का० २ सोमे श्रीश्रीमालज्ञातीय श्रे० कडूया भार्या ऊतायाः सुता: श्री थाणारसी श्री....................... भ्यां श्रीसंभवनाथबिंबं श्रीमुनिशेखरसूरीणामुपदेशेन पित्रुः भातृ वीरपालश्रेयो) कारापितं। वजाणाग्राम वास्तव्यः।।
इसी प्रकार वि० सं० १५१७ के एक प्रतिमालेख में प्रतिमाप्रतिष्ठा हेतु प्रेरक के रूप में मुनि जयशेखर का नाम मिलता है। आचार्य बुद्धिसागरसूरि ने सुमतिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण उक्त लेख का मूलपाठ दिया है, जो निम्नानुसार है :
सं० १५१७ वर्षे फा० श्रीवीरवंशे श्रे० चांपा भार्या जासु पुत्रमालाकेन भ्रा० पग्रिजीभाई सहितेन अंचलगच्छे जयशेखरसूरीणामुपदेशेन स्वश्रेयसे श्रीसुमतिनाथबिंब कारापित।।
जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग १, लेखांक ६८८.
जयशेखरसूरि द्वारा रचित कृतियों में जैनकुमारसम्भव१९ और त्रिभुवनदीपकप्रबन्ध२° विशेष उल्लेखनीय हैं। जैनकुमारसम्भव पर इनके शिष्य
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