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: श्रमण/अप्रैल-जून/ १९९९
वि०सं० १६००
२ प्रतिमालेख
विस्तार के लिए द्रष्टव्य - अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक २६८, २६९, २७०-७४, ७३२, ७३५, ७३७-३८।
गुणनिधान के एक शिष्य हर्षनिधान हुए, जिनके द्वारा रचित रत्नसंचय नामक कृति प्राप्त होती है । ५६अ
वि०सं० १६०० में गुणनिधानसूरि के निधन के पश्चात् उनके पट्टधर धर्ममूर्तिसूरि हुए। अमरसागरसूरिकृत पट्टावली के अनुसार इन्होंने षडावश्यकवृत्ति तथा गुणस्थानक्रमावरोहबृहद्वृत्ति की रचना की । ५७ श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र अपरनाम वृद्धचैत्यवन्दन और प्रद्युम्नचरित भी इन्हीं की कृति मानी जाती है । ५८
इनके उपदेश से विभिन्न ग्रन्थ भण्डारों का पुनरुद्धार हुआ। अनेक प्राचीन और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की प्रतिलिपियां करायी गयीं। इनके उपदेश से प्रतिष्ठापित कुछ जिनप्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं, जिनका विवरण इस प्रकार है
वि०सं० १६०३ वैशाख सुदि ३
वि०सं० १६२९ माघ सुदि १३ बुधवार वि०सं० १६४४ फाल्गुन सुदि २ रविवार वि०सं० १६५४ माघ वदि ९ रविवार
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अं.ले.सं., लेखांक ४३६
वही, लेखांक २७९
वही, लेखांक २८०
वही, लेखांक २८१-८२
धर्ममूर्तिसूरि के शिष्यों-प्रशिष्यों में कई प्रसिद्ध रचनाकार हो चुके हैं। इनके द्वारा रचित विभिन्न उपलब्ध कृतियों से इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है ।
वि०सं० १६०५ में रची गयी वैराग्यवीनती की प्रशस्ति में रचनाकार सहजरत्न ने स्वयं को धर्ममूर्तिसूरि का शिष्य बतलाया है । ५९ इसी प्रकार वि० सं० १६२४ में रची गयी गजसुकुमारसन्धि के रचनाकार मूलावाचक ने स्वयं को धर्ममूर्तिसूरि का प्रशिष्य और वा० रत्नप्रभ का शिष्य कहा है । ६०
धर्ममूर्तिसूरि के एक शिष्य हेमशील हुए जिनके द्वारा रचित कोई कृति तो नहीं मिलती; किन्तु उनके शिष्य विजयशील ने वि० सं० १६४१ में उत्तमचरित - ऋषिराजचौपाई की रचना की । ६१ विजयशील के एक शिष्य दयाशील हुए जिन्होंने वि० सं० १६६४/ ई० स० १६०८ के आसपास अन्तरंगकुटुम्बगीत की रचना की । ६२ इनके द्वारा रचित एक अन्य कृति कायाकुटुम्बसज्झायस्तवन भी प्राप्त होती है । ६३ विजयशील के एक अन्य शिष्य जसकीर्ति हुए जिन्होंने अंचलगच्छीय श्रावक कुंवरपाल सोनपाल द्वारा वि०सं० १६७०/ई०स० १६१४ में तीर्थयात्रा हेतु निकाले गये संघ का विस्तृत एवं ऐतिहासिक विवरण अपनी महत्त्वपूर्ण कृति सम्मेतशिखररास में प्रस्तुत किया है।
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