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श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९
वर्धनशाखा आदि। वर्धन शाखा के प्रवर्तक भाववर्धन का वि०सं० १५५६ में प्रतिष्ठापित चन्द्रप्रभस्वामी की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख में प्रतिमाप्रतिष्ठा हेतु उपदेशक के रूप में उल्लेख मिलता है -
स्त्रं० १५५६ वर्षे चैत्र सुदि ७ सोम प्राग्वाटज्ञातीय सा० चान्दा भार्या सलखणदे पु० लोलाबाई मापाता सा० खीमा भार्या खेतलदे सकुटुम्बयुतेन आत्मपु० श्रीचन्द्रप्रभस्वामिबिंब का० श्रीअंचलगच्छे श्रीसिद्धान्तसागरसूरि विद्यमाने वा० भाववर्धनगणिनामुपदेशेन प्रतिष्ठितं श्रीसंघेन मुत्रडावास्तव्य।।
अंचलगच्छीयप्रतिष्ठालेखो, लेखांक २४०
इसी लेखसंग्रह में लेखांक ४३.४ पर भी यही पाठ दिया गया है, अन्तर केवल यही है कि चैत्र के स्थान पर वैशाख लिखा हुआ है। दोनों पाठों में कौन-सा पाठ सही है इसे ज्ञात करने के लिये हमारे पास इस सम्बन्ध में कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
सिद्धान्तसागरसूरि के गुरुभ्राता धर्मशेखर के शिष्य उदयसागर५५ भी एक विद्वान् मुनि थे। इनके द्वारा रची गयी तीन कृतियां आज मिलती हैं, जो निम्नानुसार हैं : १. उत्तराध्ययनसूत्रदीपिका : रचना काल वि०सं० १५४६/ई०सन् १४९०;
____भाषा संस्कृत- ८५०० श्लोक परिमाण २. शांतिनाथचरित : २७०० श्लोक परिमाण ३. कल्पसूत्रअवधूरि : २०८५ श्लोक परिमाण
सिद्धान्तसागरसूरि के निधन के पश्चात् वि० सं० १५६० में अंचलगच्छ के १५वें पट्टधर के रूप में भावसागरसूरि का नाम मिलता है। इनके द्वारा प्राकृत भाषा में रचित २३१ गाथापरिमाण वीरवंशावली नामक कृति प्राप्त होती है। इसमें रचनाकार ने प्रारम्भ से लेकर अपने गुरु सिद्धान्तसागरसूरि तक का प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत किया है जो इस गच्छ के प्रारम्भिक इतिहास के अध्ययन के लिये अत्यन्त उपयोगी है। मुनिजिनविजय ने इसे स्वसम्पादित विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह५६ में प्रकाशित किया है।
भावसागरसूरि के उपदेश से प्रतिष्ठापित ४५ से अधिक जिनप्रतिमायें प्राप्त हुई हैं जो वि०सं० १५६० से लेकर वि०सं० १५८१ तक की हैं। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
वि०सं० १५६० ६ प्रतिमालेख वि०सं० १५६१ ४ प्रतिमालेख वि०सं० १५६३ ३ प्रतिमालेख
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