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विधिपक्ष अपरनाम अंचलगच्छ (अचलगच्छ) का संक्षिप्त इतिहास
वि.सं. १४६८
अं.ले.सं.
कार्तिक वदि २ सोमवार
वि.सं. १४६८
वि.सं. १४६९
वि.सं. १४६९
वि.सं. १४६९
माघ सुदि १० बुधवार बी. जै.ले.सं.
एवं अं.ले.सं.
माघ वदि ५
फाल्गुन वदि २ शनिवार
वि.सं. १४७० चैत्र सुदि ८ गुरुवार
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रा. ले.सं.
एवं
अं.ले.सं.
माघ सुदि ६ रविवार जै० ले०सं० भाग १,
एवं
अं.ले.सं.
और
बी. जै. ले.सं.
जै. धा. प्र.ले.सं.
भाग १ एवं अं.ले.सं.
: १२१
लेखांक ४६४
लेखांक २
लेखांक २१
लेखांक ६४६
जै० ले०सं० भाग २ लेखांक १३५९
एवं
अं.ले.सं.
लेखांक १८
लेखांक १५९६
लेखांक ५२०
लेखांक ९४
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लेखांक २२
मेरुतुंगसूरि के १८ शिष्यों का उल्लेख प्राप्त होता है जिनमें जयकीर्तिसूरि, माणिक्यशेखरसूरि, माणिक्यसुन्दरसूरि, रत्नशेखर, महीतिलक, गुणसमुद्र, भुवनतुंगसूरि 'द्वितीय' (अंचलगच्छ की तुंगशाखा के प्रवर्तक), जयतिलक, उपाध्याय धर्मशेखर, उपाध्याय धर्मनन्दन, ईश्वरगणि आदि उल्लेखनीय हैं । २८
लेखांक २०
लेखांक ८५२
मेरुतुंगसूरि के वि०सं० १४७१ में निधन होने के पश्चात् उनके शिष्य जयकीर्तिसूरि पट्टधर बने। इनके द्वारा रचित उत्तराध्ययनदीपिकावृत्ति, वैराग्यगीत, क्षेत्रसमासटीका, संग्रहणीटीका, पार्श्वदेवस्तोत्र आदि कृतियों का उल्लेख मिलता है। जिसमें से क्षेत्रसमासटीका और संग्रहणीटीका को छोड़कर अन्य सभी कृतियां आज उपलब्ध हैं । २९ आचार्य जयकीर्तिसूरि की प्रेरणा से वि०सं० १४७३ से १५०१ के मध्य प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें प्राप्त हुई हैं, जिनकी संख्या ५० से ऊपर है। इनका संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है
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