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श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९
नाम-रूपात्मक जगत् प्रकट हो गया।८ उपनिषदों की सृष्टि की अवधारणा के सार का प्रतिपादन इस प्रकार है- “प्रारम्भ में अविद्याशबल सद्ब्रह्म थे। उनसे अव्यक्त उत्पन्न हुआ। अव्यक्त से महान्, महान् से अहङ्कार, अहङ्कार से पञ्चन्मात्र, पञ्चन्मात्र से पञ्चमहाभूत, पञ्चमहाभूतों से अखिल विश्व।"९ पुराणों के अनुसार इस सृष्टि का मूल कारण ब्रह्म है। ब्रह्म के स्वभाव अथवा स्वरूप में व्यक्त, अव्यक्त, काल तथा पुरुष - ये चार शक्तियाँ निहित हैं। इन चार की सहायता या प्रयोग से वह इस विश्व की सृष्टि स्थिति तथा प्रलय करता है। यद्यपि प्रकृति (अव्यक्त), पुरुष, व्यक्त (जगत्) तथा काल परमात्मा विष्णु के रूप हैं तथापि वह उनके द्वारा सीमित नहीं होता। वह उनसे परे भी विद्यमान रहता है। यह व्यक्ताव्यक्त रूप जगत् उस परमात्मा विष्णु की क्रीड़ा के समान है।१०
पुराणों में सृष्टि की उत्पत्ति की कई मान्यताएँ प्राप्त होती है। इसमें रौद्री सृष्टि, अंगज सृष्टि, मानवी सृष्टि, मैथुनी सृष्टि, चतुर्विध प्रज्ञा सृष्टि प्रमुख है।
यहाँ जैन दर्शन की मान्यतानुसार सृष्टि की अवधारणा पर विचार किया जा रहा है।
सृष्टि के सम्बन्ध में जैन दर्शन पूर्णत: निीत है। उसके अनुसार यह लोक (विश्व या सृष्टि) जीव तथा पुद्गल आदि छ: द्रव्यों से निर्मित है। ये छ: द्रव्य हैं -- १. जीव, २. पुद्गल, ३. धर्म, ४. अधर्म, ५. आकाश, और ६. काल। जीव उसे कहते हैं, जो चेतना सहित हो पुद्गल, जो रूप, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि युक्त है। जो जीव और पुद्गल के गमन में सहकारी हो उसे धर्म तथा जो जीव और पुद्गल की स्थिति में सहकारी हो उसे अधर्म द्रव्य कहा गया है। जो जीवादि पदार्थों को अवकाश दे उसे आकाश कहते हैं तथा जो जीवादिक पदार्थों के परिणमन में सहकारी हो उसे कालद्रव्य कहते हैं। ये छ: द्रव्य न तो कभी किसी से उत्पन्न हुए हैं और न कभी किसी अन्य द्रव्य में विलीन ही होंगे। इन छ: द्रव्यों की अनन्त संख्या से निर्मित यह लोक भी आदि अन्तरहित, अकर्तृक तथा स्वसंचालित है।११ इसका स्रष्टा, पालक अथवा संहारक भी कोई नहीं है। १२ यद्यपि ब्रह्मवादी पुराणों की तरह जैन दर्शन भी सद्वादी है, किन्तु उसका सत् पुराणों के समान कोई तत्त्व अथवा द्रव्य नहीं अपितु द्रव्य का लक्षण मात्र है। १३ इस लक्षण से कुछ उत्पन्न नहीं होता; किन्तु उस लक्षण से युक्त द्रव्य से निरन्तर अनेक पर्यायों की उत्पत्ति एवं संहति होती रहती है तथा इसके बावजूद भी वह द्रव्य अव्यय बना रहता है। १४ यहाँ हम छ: द्रव्यों के आपसी सम्बन्ध और सृष्टि विषयक विवेचन प्रस्तुत करेंगे।
___ जीव की परिभाषा करते हुए जैन दर्शन में कहा गया है कि तीन काल में इन्द्रिय, बल, आयु और आनपान इन चारों प्राणों को जो धारण करता है, वह व्यवहार नय से जीव है, और निश्चय नय से जिसके चेतना है, वही जीव है। १५
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