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जैन दर्शन में सृष्टि की अवधारणा : १०९
पुराणों के अनुसार इस सृष्टि का संचालक ब्रह्म अथवा ईश्वर है। प्राचीन काल में कभी एकाकी ईश्वर में सृष्टि की कामना हुई तब ईश्वर ने अपने श्वास से इस संसार के समस्त प्राणियों की रचना की। सृष्टि की रचना करने वाले ईश्वर ब्रह्मा कहलाये। इसके पश्चात् वह ब्रह्मा विष्णु का रूप धारण करके जगत् का पालन करने लगे। प्रलयकाल में वही ब्रह्म शङ्कर रूप में विश्व का संहार कर डालते हैं। कुछ समय के विश्राम के पश्चात् वहीं क्रम पुन: शुरू होता है।
पुरुषार्थवादी जैन दार्शनिकों को विश्व के इस एकमेव अद्वितीय मूल तत्त्व ब्रह्म और उसके द्वारा विश्व की सृष्टि, स्थिति एवं संहार का सिद्धान्त अमान्य है। उनके अनुसार न तो कोई ब्रह्मा इस सृष्टि का सृजन करता हैं, न कोई विष्णु इसका पालन करते हैं और न ही कोई शिव इसका संहार करते हैं। इसके विपरीत उन्होंने इस सृष्टि को आदि-अन्त से रहित, शाश्वत माना है, कार्तिकेयानुप्रेक्षा नामक ग्रन्थ में कहा
गया है -
सर्वाकाशमनन्तं तस्य च बहुमध्यसंस्थितः लोकः। स केनापि नैव कृतः न च धृत हरिहरादिभिः।।१५।।
जैन दर्शन में जड़ (अजीव) और चेतन (जीव) के बीच कोई पूर्वापर सम्बन्ध नहीं है। यहाँ जीव और अजीव दोनों एक दूसरे के प्रतिपक्षी है और एक के बिना दूसरे का अस्तित्त्व सिद्ध नहीं हो सकता है। यह अनादि और पूर्वापर मुक्त शाश्वत भाव से चलता रहता है।४०
उनके अनुसार यह सृष्टि पूर्वोक्त छ: द्रव्यों के स्वभाव से स्वत: संचालित है। इस लोक में यद्यपि ये छ: द्रव्य एक दूसरे से जुड़े हैं फिर भी तात्त्विक दृष्टि से वे सर्वथा भिन्न-भिन्न ८ हैं। न तो ये किसी एक तत्त्व से उत्पन्न है, और न एक में विलीन होने वाले हैं। इस प्रकार षड्द्रव्यों से निर्मित अकृतिम, अनीश्वर सृष्टि की कल्पना जैनदर्शन में प्राप्त होती है। सन्दर्भ-सूची १. ऋग्वेद, १०/१२/१;
शुक्ल यजुर्वेद, १३/४/१. २. शुक्ल यजुर्वेद, ३१/५. ३. मनुस्मृति, अध्याय १, श्लोक ९-१५. ४. ब्रह्मसूत्र, छान्दोग्य उपनिषद्, ३/१४/१ – (सर्वमेतदिदंब्रह्म) ५. वाग्विज्ञान, पृ० ३४.
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