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जैन दर्शन में सृष्टि की अवधारणा
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ततो विराऽजायतविराजो अधिपूरुषः।
स जातो अत्यरिच्यतपश्चाद्भूमिमथो पुरः।।२ अर्थात् सर्वप्रथम स्वयं प्रकट होने वाले विराट आदिपुरुष ने ही इस पृथ्वी और सृष्टि को जन्म दिया।
इसके पश्चात् 'पुरुष सूक्त' में क्रमश: भूमि, यज्ञ, वायव्य-आरण्य, ग्राम्य पशु, तीन वेद (ऋक्, साम, यजुः), अश्व, गौ, बकरा, देवता, ऋषि, चार वर्ण, चन्द्रमा, सूर्य, वायु, प्राण, अग्नि, आकाश, भूमि तथा अनेक लोक, वसन्त, ग्रीष्म और शरद की उत्पत्ति हुई। फिर जल से पृथ्वी में रस उत्पन्न हुआ।
मनुस्मृति के अनुसार आरम्भ में चारों ओर घोर अन्धकार था। इसमें स्वयं प्रकाशवान् अरूप भगवान् ने अन्धकार दूर किया और अपने चारों ओर जल फैलाकर उसमें बीज (चैतन्य तत्त्व) डाल दिया। उस बीज से स्वर्ण की तरह दमकने वाला और सूर्य की तरह प्रकाशवान् एक अण्डे के आकार का विशाल ज्योतिष पिण्ड प्रकट हुआ। उसी अण्डाकार ज्वलन-पिण्ड से स्वयं भगवान् स्रष्टा ब्रह्मा के रूप में प्रकट हुए और सष्टि की रचना की। वेदान्तियों का मानना है कि यह सब कुछ केवल ब्रह्म ही है। यहाँ, अनेक रूपों और नामों से दिखाई देने वाली वस्तुएँ कुछ नहीं हैं।
सर्व खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन।४ न्याय और वैशेषिक दर्शन का मत है कि जब यह संसार पूर्णत: ध्वस्त होकर लय होजाता है तब केवल परमेश्वर ही एकमात्र शेष रह जाते हैं। वे जब पुन: संसार का निर्माण करने की इच्छा करते हैं उस समय अदृष्ट परमात्मा के सम्पर्क से वायु के सूक्ष्म कणों में हलचल होने लगती है। इन नन्हें-नन्हें वायु कणों के मिलते चलने से वायु का वेग तीव्र हो जाता है और वह आकाश में व्याप्त होने लगता है। इस वायु के वेग के साथ-साथ जल के कण भी इस प्रकार बढ़ते चलते है कि उनके बढ़ने से चारों ओर जल फैल जाता है इसी प्रकार वायु के छोटे-छोटे परमाणु भी धीरे-धीरे मिलकर बढ़ते-बढ़ते पानी में बैठते चलते है और सृष्टि का निर्माण होने लगता है। न्याय और वैशेषिक दर्शन के आचार्य इन्हीं परमाणुओं से ही सृष्टि का निर्माण मानते है। ५ सांख्य और योग दर्शन के आचार्यों का मत है कि प्रकृति और पुरुष के संयोग से सृष्टि होती है।६ राग(प्रकृति) और विराग (पुरुष) को इस योग से महदादि क्रम से पञ्चभूतपर्यन्त तत्त्वों की सृष्टि होती है।
उपनिषदों की मान्यता है कि ईश्वर के मात्र इच्छा व्यक्त करने से ही यह जगत् प्रकट हो गया।
‘एकोऽहं बहुस्यां प्रजायेय' अर्थात् मैं एक हूँ, मैं बहुत हो जाऊँ। और यह
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