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गुरु का स्वरूप : गुरुतत्त्वविनिश्चय के विशेष सन्दर्भ में :
जो रात-दिन अहिंसादि लक्षण तथा क्षमादि दशधर्म में लीन रहने वाला हो । जो निरन्तर पर्वत के समान अडिग बारह तपों को करने वाला हो । जो पाँच समितियों का सतत् पालन करने वाला हो ।
जो सतत् तीन गुप्तियों से युक्त रहने वाला हो ।
स्वशक्ति से अठारह हजार (१८,०००) शीलांग की आराधना करने वाला हो । उत्सर्गरुचि, तत्त्वरुचि और शत्रु-मित्र के साथ समभाव रखने वाला हो । जो सात भयस्थानों से मुक्त हो ।
आठ मदस्थानों से मुक्त हो ।
जो नौ ब्रह्मचर्य तथा गुप्ति की विराधना से डरने वाला हो ।
जो बहुश्रुत हो ।
जो आर्यकुल में जन्मा हो ।
जो साध्वी वर्ग के संसर्ग में न रहने वाला हो।
जो निरन्तर धर्मोपदेश करने वाला हो ।
जो
ओध समाचार की प्ररूपणा करने वाला हो ।
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सतत् साधु-मर्यादा में रहने वाला हो ।
जो समाचारी के भंग होने से डरने वाला हो ।
जो आलोचना के योग्य शिष्य को प्रायश्चित करवाने में समर्थ हो ।
जो वन्दन, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, व्याख्यान, आलोचना, उद्देश और समुद्देश आदि सात समूहों की विराधना का जानकार हो ।
प्रव्रज्या, उपसम्पदा और उद्देश- समुद्देश- अनुज्ञा की विराधना का जानकार हो । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-भवान्तर के अन्तर को जानने वाला हो ।
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावनादि आलम्बन से विमुक्त हो ।
जो थके हुए बाल, वृद्ध, नवदीक्षित साधु और साध्वी को मोक्षमार्ग की ओर प्रवर्तन करने में कुशल हो ।
जो ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी तप की प्ररूपणा करने वाला हो ।
जो चरण और करण का धारक हो ।
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