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: श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९ जो ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी तपों के गुणों में प्रभावक हो। जो दृढ़ सम्यक्त्व वाला हो। जो सतत् परिश्रम करने वाला हो। जो धैर्य रखने में समर्थ हो। जो गम्भीर स्वभाव वाला हो। जो अतिशय सौम्य कान्ति वाला हो। सूर्य की भाँति तपरूपी तेज से दूसरे द्वारा पराजित न होने वाला हो। दान, शील, तप और भावनारूपी चतुर्विध धर्म में उत्पन्न करने वाले विघ्नों से डरने वाला हो। जो सभी प्रकार की अशातनाओं से डरने वाला हो। । ऋद्धि, रस, सुख आदि तथा रौद्र, आर्त आदि ध्यानों से अत्यन्त मुक्त हो। सभी आवश्यक क्रियाओं में उद्यत हो। जो विशेष लब्धियों से युक्त हो। जो बहुनिद्रा न करने वाला हो। जो बहुभोजी न हो। जो सभी आवश्यक, स्वाध्याय, ध्यान, अभिग्रह आदि में परिश्रमी हो। जो परीषह और उपसर्ग से न घबराने वाला हो। जो योग्य शिष्य को संग्रहीत करने में सक्षम हो। अयोग्य शिष्य का त्याग करने की विधि को जानने वाला हो। जो मजबूत शरीर वाला हो। जो स्व-पर शास्त्रों का मर्मज्ञ हो। क्रोध, मान, माया, लोभ, ममता, रति, हास्य, क्रीड़ा, काम, अहितवाद आदि बाधाओं से सर्वथा मुक्त हो। जो सांसारिक विषयों में लिप्त रहने वाले व्यक्ति को अपने अभिभाषण/धर्मोपदेश द्वारा वैराग्य उत्पन्न कराने में समर्थ हो। जो भव्य जीवों (आत्मा) को प्रतिबोध द्वारा गच्छ में लाने वाला हो।
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