Book Title: Sramana 1999 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 90
________________ महावीर के सिद्धान्त : वर्तमान परिप्रेक्ष्य : ८७ अदना-सा आदमी ही क्यों न हो, आत्मसत्ता के स्तर पर समान है। उसमें अन्तर्निहित सम्भावनाएँ समान हैं। ___महावीर के सिद्धान्तों में अनुध्वनित अपरिग्रह तथा अहिंसा के सन्देश मनुष्य की वर्तमान आर्थिक एवं सामाजिक आकांक्षाओं को ऊपर उठाने में अधिकाधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। उन्होंने अपरिग्रह के व्रत पर इसलिए बल दिया कि वह जानते थे, कि आर्थिक असमानता और आवश्यक वस्तुओं का अनुचित संग्रह सामाजिक जीवन को विघटित करने वाला है। महावीर ने ऐसे समाजघाती परिग्रहवाद के विरोध में आवाज उठाई और अपरिग्रह के सामाजिक मूल्य की स्थापना की। ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्', अर्थात् जीवों के प्रति परस्पर उपकार की भावना ही उनकी जीवन-साधना का लक्ष्य था और इसका प्रतिफलन उनके मूल्यवान् सिद्धान्तों में हुआ है। महावीर का सिद्धान्त है कि सत्य अनन्तमुख है। अपने को ही एकान्तिक रूप से सही मानना और दूसरे को गलत समझना सत्य का अनादर करना है। किसी को सर्वथा गलत मानना वैचारिक स्तर पर हिंसा है; उसकी जीवन-सत्ता को अस्वीकार करना है। उनका कथन है कि सापेक्ष स्तर पर सत्य को उसके सन्दर्भो में देखा जाय और उन सन्दर्भो में अन्तर्निहित रूपों के द्वारा उसे सम्मानित किया जाय, उसके जीवन-मूल्य को स्वीकार किया जाय। __एकत्व में अनेकत्व तथा अनेकत्व में एकत्व, यानी उभयात्मक दृष्टि ही वस्तुसत्य के सही अभिज्ञान या सम्यग्ज्ञान में समर्थ होती है। हाथी के पैर, पूँछ, सैंड और कान को टटोलकर उसके एक-एक अवयव को ही हाथी मानने वाले जन्मान्ध लोगों का अभिप्राय मिथ्या होता है, पर हाथी के समस्त अवयवों के समुदाय को हाथी के रूप में पहचान करने वालों की अनेकान्त दृष्टि ही सही दृष्टि होती है। महावीर के सिद्धान्तों में निहित अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के तत्त्व निश्चय ही उनके द्वारा किये गये सामाजिक विकास के तत्त्वान्वेषण की युगान्तरकारी परिणति हैं। कोई भी आत्मसाधक महापुरुष लौकिक- सामाजिक व्यवस्था के आधारभूत तत्त्वों की उपेक्षा नहीं कर सकता। महावीर ने पद-दलित लोगों को सामाजिक सम्मान देकर उनमें आत्माभिमान जगाया। उन्होंने अपने सिद्धान्तों को बराबर अपने ही जीवन में उतारने का प्रयत्न किया। वह बराबर आत्मपर्यवेक्षण और आत्मनिरीक्षण के दौर से गुजरते रहे। उनकी कथनी और करनी, यानी कर्म और वाणी में एकता थी, इसलिए उनकी सैद्धान्तिक वैचारिकी उनके स्वयंभुक्त जीवनानुभव की ही मार्मिक अभिव्यक्ति है। वह 'जियो और जीने दो' सिद्धान्त के प्रवर्तक थे। अहिंसा. अपरिग्रह और अनेकान्त की त्रयी में अहिंसा, सुमेरु की तरह प्रतिष्ठित है। महावीर का सम्पूर्ण धर्मचक्र मूलत: अहिंसा की धुरी पर ही घूमता है। अहिंसा की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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