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श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९
साधना के लिए हिंसा का ज्ञान परम आवश्यक है। हिंसा के अनेक आयाम हैं, जिनके समानान्तर ही अहिंसा के आयाम अवस्थित हैं। शरीर के स्तर पर हिंसा प्राणातिपात है, जीवन-साधनों के स्तर पर होने वाली हिंसा मूर्छा या परिग्रह है और विचारों के स्तर पर होने वाली हिंसा एकान्तवादी आग्रह है। इसलिए, अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। तीनों ही अहिंसा की मूलभूत प्राणसत्ता की अभिव्यक्तियाँ हैं। अहिंसा की समग्र साधना के रूप में ही अपरिग्रह और अनेकान्त समाहित हैं। इन्हें ही हम 'रत्नत्रय' भी कह सकते हैं। अनेकान्त सम्यग्ज्ञान का प्रतिरूप है, अहिंसा सम्यक् चारित्र है और अपरिग्रह सम्यग्दर्शन है। अहिंसा ही जीवन की सही दृष्टि है। वही जी पायेगा, जो जीने देगा। किसी की जीवन-सत्ता का अतिक्रमण हमारी अपनी ही जीवन-सत्ता का अतिक्रमण है।
निर्धनता, जातिवाद और सम्प्रदायवाद जैसी विषम और व्यापक समस्याओं के अतिरिक्त, व्यक्तिगत आचार-विचार की समस्याओं के भी आधुनिक परिप्रेक्ष्य में व्यावहारिक समाधान महावीर के सिद्धान्तों में प्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध हैं। उन्होंने अहिंसा द्वारा सामाजिक क्रान्ति, अपरिग्रह द्वारा आर्थिक क्रान्ति तथा अनेकान्त द्वारा वैचारिक क्रान्ति का सूत्रपात किया। उनकी दृष्टि में वैचारिक मतभेद संघर्ष का कारण नहीं, अपित् उन्मुक्त मस्तिष्क की आवाज है। इसी तथ्य को प्रकट करने के लिए उन्होंने कहा कि वस्तु एकपक्षीय नहीं, अपितु अनेकपक्षीय है। प्रत्येक व्यक्ति सत्य के नये पक्ष को खोज कर समाज की समस्याओं का समाधान कर सकता है। निस्सन्देह, अनेकान्त समाज का गत्यात्मक सिद्धान्त है, जो जीवन में वैचारिक प्रगति का आह्वान करता है। उक्त नये पक्ष की खोज में 'स्याद्वाद' की भूमिका वाचिक माध्यम की होती है।
अपने को पहचाने बिना समाज की नाड़ी को पकड़ पाना सम्भव नहीं है। अतएव, महावीर का सम्पूर्ण जीवन आत्मसाधना के पश्चात् सामाजिक मूल्यों और प्रतिमानों की प्रतिष्ठापना में व्यतीत हुआ।
कुल मिलाकर, महावीर के सिद्धान्तों का सीधा उद्देश्य सामाजिक आन्दोलनों से सम्बद्ध है। धर्म के तीन मुख्य अंग होते हैं : दर्शन, कर्मकाण्ड और समाजनीति। आधुनिक सन्दर्भ में किसी भी धर्म की उपयोगिता का मूल्याङ्कन उसकी समाजनीति से किया जाता है। महावीर के सिद्धान्तों से स्पष्ट है कि जैनधर्म की उत्पत्ति तत्कालीन आडम्बरपूर्ण समाज-व्यवस्था के विरोध में एक सशक्त क्रान्ति के रूप में हुई थी। उन्होंने वर्ग-वैषम्य को मिटाकर समता की स्थापना, दार्शनिक मतवादों का समन्वय, धार्मिक आडम्बरों का बहिष्कार, पशुबलि का निषेध, अनावश्यक धनसञ्चय की वर्जना और अपनी सञ्चित राशि पर स्वामित्व की भावना का निराकरपा, दलितों और नारियों का उत्थान आदि कार्य-प्रक्रियाओं द्वारा सामाजिक सुधार के आन्दोलन की गति को तीव्रता
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