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श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९
ने ग्वालियर पर आक्रमण करके उसके अन्यान्य परगनों को अपने अधिकार में कर लिया था।
मूल्यदास के देहान्त के पश्चात् खरगसेन का ग्वालियर में रहना दूभर हो गया। चूँकि जौनपुर के विद्या एवं कला की ख्याति इनके कानों में पड़ी हुई थी, इसलिए माता
और पुत्र ने असहाय होकर पूर्व देश में जौनपुर की ओर प्रस्थान किया, जहाँ पर उसके मातामह मदनसेन निचौलिया पहले से आकर बस गये थे। बनारसीदास के पिता खरगसेन का सम्पूर्ण जीवन इसी पवित्र नगर में बीता और यहीं मुहल्ला रासमण्डल में गोमती नदी के रम्य-तट पर बनारसीदास का जन्म हुआ। यहीं की मिट्टी में खेलकर, गोमती नदी की पवित्र धारा में स्नान कर, प्रसिद्ध कवि बनारसीदास का व्यक्तित्व हिन्दी साहित्य के महत्त्वपूर्ण सेवा के कारण निखर आया।२ ।
बनारसीदास एक उच्चकोटि के हिन्दी के कवि हुए। आपकी काव्यविद्या ने शर्की-काल के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक सभी आयामों को विशेष रूप से रेखांकित किया है। इन्होंने अपनी रचना अर्द्धकथानक में जौनपुर के आदर्शों, मूल्यों, प्रतिमानों एवं गौरव को रेखांकित किया है। ३ बनारसीदास का कथन है कि गोमती के रम्य-तट पर बसे हुए इस नगर में चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र) के लोग रहते हैं। जहाँ अन्यान्य गृह उद्यान हैं। यहाँ अनेक जातियाँ निवास करती हैं। इन जातियों में दर्जी, तमोली, रंगरेज, ग्वाले, तेली, धोबी, धुनिया, हलवाई, कहार, कलाल, काछी, कुम्भकार, माली, कुन्दीगर, कागदी, किसान, बुनकर, मोती बीधने वाले, बारी, लखेरे, ठठेरे, भड़भूजे, सुनार, नाई, लोहार, धीवर, पदुवा एवं चमार आदि प्रमुख हैं। नगर, मठ, मण्डप, प्रासादों, पताकाओं, तन्दुओं आदि से युक्त सतखण्डे घरों से भरा है। नगर के चतुर्दिक बावन सरायें, बावन बाजार तथा बावन मण्डियाँ हैं।४ “जौनपुर गजेटियर'' में भी प्रायः इन्हीं हिन्दू जातियों का उल्लेख मिलता है।५
कविवर बनारसीदास ने "भर" एवं "सइरी' जाति का उल्लेख नहीं किया है। जौनपुर-जनपद के अन्यान्य पुरातात्त्विक-स्थलों के विषय में जनश्रुतियाँ हैं कि उन पर "भर'' एवं “सुइरी' जाति के लोगों का प्रारम्भ में अधिकार था। फिरोजशाह तुगलक के जौनपुर आबाद करने से पूर्व इन स्थानों पर सम्भवत: ऋषि और साधु रहते थे। ठाकुर लोग भी आकर आबाद होते रहे, परन्तु किसी शासन का कोई संकेत नहीं मिलता, इसका मूल कारण यह है कि जौनपुर और उसके निकटवर्ती स्थान मिर्जापुर और बनारस में उस समय भरों एवं सुइरियों का अधिकार था। गहडवाल राजपूतों ने अपने शासन की नींव दृढ़ करने के बाद उन प्राचीन निवासियों को इन स्थानों से निकालना प्रारम्भ कर दिया, परन्तु सफलता न प्राप्त हो सकी। ये लोग दुर्ग बनाकर शासन करते थे। सोइरियों का दुर्ग चन्दवक में था तथा बनारस की सीमा तक उनका अधिकार था। चन्दवक
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