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गुरु का स्वरूप : गुरुतत्त्वविनिश्चय के विशेष सन्दर्भ में
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और संग्रह-निग्रह का दायित्व होता है और न ही उपाध्याय की भाँति शिक्षा का उत्तरदायित्व होता है। मुनि का आचरण पालन करने वाला गुरु भी हो सकता और शिष्य भी।
सन्दर्भ-सूची १. कल्याण (योगाङ्क), गीताप्रेस गोरखपुर, पृ० ५४५. २. वही ३. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीट दिल्ली, भाग २, पृ०
२५१. ४. कल्याण, (योगाङ्क), पृ० ५४५.
सर्ववेदान्त सिद्धान्तसारसंग्रह (गुजराती अनुवाद), भिक्षु अखण्डानन्दजी, सस्ता साहित्यवर्धक कार्यालय, मुम्बई सं० २००२. उत्तराध्ययन, सम्पा०- साध्वी चन्दना, वीरायतन प्रकाशन, आगरा १९७२,
१/४०-४१. ७. वही, १/८, १७,२७. ८. वही, १/४६. ९. वही, ३६/२६५. १०. आ मर्यादयातद् विषयविनयरूपया चर्य्यन्ते सेव्यते जिनशासनार्थोपदेशकतया
तदाकांक्षिभिरित्याचार्याः। भगवतीसूत्र वृत्ति. ११. आयारं पंचविहं चरदि जो णिरदिचारं
उवसदि य आयारं एसो आयारवं णाम। – भगवतीआराधना, शिवार्य,
अन्तकीर्ति ग्रन्थमाला, बम्बई, ४१९. १२. पंचविद्यमाचारं चरन्ति चारयन्तीत्याचार्याः । षट्खण्डागम (धवलाटीका), सम्पा.
डॉ० हीरालाल जैन, अमरावती संस्करण, १/१, १, १, ४८/८. १३. आचरन्ति तस्माद् व्रतानीत्याचार्यः। सर्वार्थसिद्धि, भारतीय ज्ञानपीठ, १९५५,
९/२४. १४. जह दीवो अप्पाणं परं च दीवेइ दित्तिगुणजोगा।
तह रयणत्तयजोगा, गुरू वि मोहंधयारहरो।। - गुरुतत्त्वविनिश्चय, गुज० अनु० मुनिश्री राजशेखर विजय जी, प्रका०-जैन साहित्य विकास मण्डल, मुम्बई १९८५, १/५
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