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गुरु का स्वरूप : गुरुतत्त्वविनिश्चय के विशेष सन्दर्भ में
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आचार्य (गुरु) के उपर्युक्त विभाजन से यह स्पष्ट होता है कि कलाचार्य और शिल्पाचार्य का सम्बन्ध मानव के भौतिक जीवन से है तथा धर्माचार्य का सम्बन्ध मानव के आध्यात्मिक जीवन से है। गृहस्थाचार्य
। व्रती गृहस्थ भी आचार्य के तुल्य होते हैं, क्योंकि दीक्षाचार्य के द्वारा दी हुई दीक्षा के समान ही गृहस्थाचार्यों की क्रिया होती है। २९ प्रतिष्ठाचार्य
जो देश, कुल और जाति से शुद्ध हो, निरूपम अंग का धारक हो, विशुद्ध सम्यग्दृष्टि हो, प्रथमानुयोग में कुशल हो, प्रतिष्ठा के लक्षण एवं विधि का जानकार हो, श्रावक के गुणों से युक्त हो, श्रावकाचार शास्त्र में स्थिरबुद्धि हो, इस प्रकार के गुण वाला जिनशासन में प्रतिष्ठाचार्य कहा गया है।३° लेकिन सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि वह आचार्य जो जिनशासन को समाज में प्रतिष्ठित करता है, प्रतिष्ठाचार्य है।
बालाचार्य
बालाचार्य यानी कम उम्र का आचार्य। भगवती आराधना में वर्णन आया है कि अपनी आयु अभी कितनी रही है इसका विचार कर, तदनन्तर अपने शिष्य समुदाय को अपने स्थान में जिसकी स्थापना की है, ऐसे बालाचार्य को बुलाकर सौम्य तिथि, करण, नक्षत्र और लग्न के समय शुभ प्रदेश में, अपने गुण के समान जिसके गुण हैं, ऐसे वे बालाचार्य अपने गच्छ का पालन करने के योग्य हैं, ऐसा विचार कर उस पर अपने गण को विसर्जित करते हैं अर्थात् अपना पद छोड़कर सम्पूर्ण गण को बालाचार्य के लिए छोड़ देते हैं। ३१ अर्थात् बालाचार्य ही उस समय से गण का आचार्य माना जाता है। निर्यापकाचार्य
जो संसार से भयमुक्त है, जो पापकर्म भीरू है और जिसको जिनागम का सर्वस्वरूप मालूम है, ऐसे आचार्य के चरणमूल में वह यति समाधिमरणोधमी होकर आराधना की सिद्धि करता है। ३२ एलाचार्य । जो गुरु के पश्चात् मुनि चारित्र का क्रम मुनि और आर्यिकादि को कंहता है उसे अनुदिश अर्थात् एलाचार्य कहते हैं। ३३
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