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श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९
गुरूतत्त्वविनिश्चय३४ में गुरु के चार प्रकार बताये गये हैं – नामाचार्य, .. स्थापनाचार्य, द्रव्याचार्य और भावाचार्य।
नामाचार्य- वह व्यक्ति जिसका नाम आचार्य हो, किन्तु कार्य नहीं हो।
स्थापनाचार्य- किसी चित्र या प्रतिमा में आचार्य के स्वरूप को स्थापित कर यह कहना कि यह आचार्य है, स्थापनाचार्य है।
द्रव्याचार्य- वर्तमान में आचार्य नहीं हैं लेकिन भूत में आचार्य थे और भविष्य में होने वाले हैं। द्रव्याचार्य के पुन: दो विभाजन किये गये हैं३५- (क) प्रधान द्रव्याचार्य, तथा (ख) अप्रधान द्रव्याचार्य। जो आचार्य वर्तमान में भावाचार्य नहीं है, लेकिन भविष्य में भावाचार्य बनाने योग्य है, वह प्रधान द्रव्याचार्य है। इसी तरह जो आचार्य भावाचार्य नहीं है और न भविष्य में ही भावाचार्य बनाने लायक है, वह अप्रधान द्रव्याचार्य है।
भावाचार्य- जो आचार्य के समग्र गुणों से सम्पन्न हो वह भावाचार्य है। गच्छाचार प्रकीर्णक में कहा गया है कि जो आचार्य जिनमत का सम्यक् प्रकाशन करता है, वह भावाचार्य है। गुरुतत्त्वविनिश्चय के प्रथम उल्लास की सतरहवीं गाथा देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि मुख्य रूप से गुरु या आचार्य दो प्रकार के होते हैं
- (१) व्यवहारी आचार्य/साधु तथा (२) निश्चयी आचार्य/साधु। व्यवहार की दृष्टि से गुरु के अनेक प्रकार होते हैं, क्योंकि व्यवहार में अनेक गुरुओं की पूजा होती है
और उनसे बहुत से लाभ होते हैं। "हम बहुत से गुरुओं की पूजा करते है" की भावना मन में गुरु के प्रति पूजत्व भाव को जागृत करता है। दूसरी ओर निश्चयदृष्टि से एक गुरु की पूजा होती है। एक गुरु की पूजा करने से अनेक गुरुओं की पूजा हो जाती है।३६ ग्रन्थ के द्वितीय उल्लास की द्वितीय गाथा में कहा गया है कि जो व्यवहार-व्यवहारी और व्यवहर्तव्य की त्रिपुटी को जानने वाला है वह सद्गुरु है। ३७ ग्रन्थ के अन्त में वर्णन आया है कि आत्मभाव से एकरूप वाला तथा श्रद्धा, ज्ञान, आचरणभाव आदि व्यवहार में निरन्तर प्रवृत्त रहने वाले सुगुरु के यहाँ ही सम्पूर्ण जगत का शरण है।३८
गुरु के उपर्युक्त चारों प्रकारों में भावाचार्य को विशेष महत्त्व दिया गया है, क्योंकि प्रथम उल्लास की बारहवीं गाथा में स्पष्ट कहा गया है - नामधारी गुरु की सेवा करने से गुरुभक्ति नहीं होती, चारों में से भावाचार्य गुरु ही स्वीकारने योग्य हैं।३९ ।
गुरुतत्त्वविनिश्चय में आचार्य या गुरु के आचार का वर्णन साधु के रूप में किया गया है। यद्यपि दोनों में कुछ अन्तर है। आचार्य या उपाध्यक्ष की तरह साधु भी मुनि के आचार का पालन करता है। लेकिन साधु पर न तो आचार्य की भाँति संघ-व्यवस्था
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