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७६ : श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९ कुशल हो, सूत्रार्थ में विशारद हो, जिनकी कीर्ति सर्वत्र फैल रही हो, जो सारण, वारण
और शोधन करने वाली क्रियाओं में निरन्तर उद्यत हो, वे आचार्य परमेष्ठी के समान होते हैं। १६ आदिपुराण में भी आचार्य के लक्षण बताये गये हैं, जो निम्न प्रकार हैंजो सदाचारी हो, स्थिर बुद्धि हो, जितेन्द्रिय हो, अन्तरंग-बहिरंग सौम्यता हो, व्याख्यान शैली की प्रवीणता हो, सुबोध व्याख्यान शैली हो, प्रत्युत्पन्नमतित्व हो, गम्भीर हो, प्रतिभा से युक्त हो, तार्किकता अर्थात् प्रश्न तथा कुतर्कों को सहने वाला हो, दयालु हो, दूसरे अर्थात् शिष्य के अभिप्रायों को अवगत करने में सक्षम हो, समस्त विद्याओं का ज्ञाता हो, स्नेहशील हो, उदार प्रवृत्ति का हो, सत्यवादी हो, सत्कुलोत्पन्न हो, परहित साधन तत्परता आदि से युक्त हो।१७
गुरुतत्त्वविनिश्चय १८ में निम्नलिखित लक्षण बताये गये हैं - जो सुन्दर व्रत वाला हो। जो सुशील हो। जो दृढ़ व्रत वाला हो। जो दृढ़ चारित्र वाला हो। जो अनिन्दित अंग वाला हो। जो अपरिग्रही हो। जो राग-द्वेष-रहित हो। मोह-मिथ्यात्वरूपी मल कलंक से रहित हो। उपशान्त वृत्ति वाला हो। स्वप्नशास्त्र का जानकार हो। महावैराग्य के मार्ग का जानकार हो। जो स्त्रीकथा, भक्तकथा, चौर्यकथा, राजकथा और देशकथाओं को न करने वाला हो। जो अत्यन्त अनुकम्पाशील हो। परलोक में प्राप्त होने वाले विघ्नों से डरने वाला हो। जो कुशील का शत्रु हो। जो शास्त्रों के भावार्थ को जानने वाला हो। जो शास्त्रों के रहस्यों को जानने वाला हो।
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