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७४ : श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९ 'गुरु' का शाब्दिक अर्थ
सामान्यत: अध्यापक या आचार्य के लिए 'गुरु' शब्द का प्रयोग किया जाता है। लेकिन गुरु शब्द का कई अर्थों में प्रयोग देखा जाता है, यथा
व्याकरण में ह्रस्व और दीर्घ दो प्रकार के स्वर माने गये हैं, जिसमें दीर्घ को गुरु के नाम से भी जाना जाता है। ज्योतिषशास्त्र में बृहस्पति नाम का एक ग्रह है जिसे गुरु कहा जाता है।
गुरु शब्द की व्युत्पत्ति “गृ' धातु में "कु' और 'उत्व' प्रत्यय लगने से होती है। व्युत्पत्तिमूलक अर्थ बताते हुए पं० श्री केशवदेव शर्मा ने लिखा है - 'गृ शब्दे' क्रयादि और 'गृ निगरणे' तुदादिगण की धातु को 'कृयोरूच्च' इस उणादि सूत्र से 'कु' प्रत्यय और उकारान्तादेश होने पर 'उरण परः' इससे उरादेशान्तन्तर ‘कृत्तद्धिसमासाश्च' इससे प्रतिपादक संज्ञा के पश्चात् 'सु' विभक्ति आने पर 'गुरु' शब्द सिद्ध होता है। १ तन्त्र की दृष्टि से विचार करते हुए पण्डितजी ने पुन: लिखा है - 'गुरु' शब्द में गकार का अर्थ सिद्धदाता है, रेफ का अर्थ पापनाशक तथा उकार का अर्थ शम्भु है। २ तात्पर्य है जो तत्त्वज्ञान को प्रकट कर शिव के साथ अभिन्न (मिलान) करा देता है, वह गुरु है। जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश में गुरु शब्द का अर्थ महान् बताते हुए कहा गया है कि लोक में अध्यापकों को गुरु कहते हैं। ३ माता-पिता भी गुरु कहलाते हैं, परन्तु धार्मिक प्रकरण में आचार्य, उपाध्याय व साधु गुरु कहलाते हैं, क्योंकि वे जीव को उपदेश दे कर अथवा बिना उपदेश दिये ही केवल अपने जीवन का दर्शन कराकर कल्याण का वह सच्चा मार्ग बताते हैं, जिसे पाकर वह सदा के लिए कृतकृत्य हो जाता है। इसके अतिरिक्त विरक्त चित्त सम्यग्दृष्टि श्रावक भी उपरोक्त कारणवश ही गुरु संज्ञा को प्राप्त करता है। इसी प्रकार उपाध्याय अमरमुनि ने 'गुरु' का शाब्दिक अर्थ बताते हुए कहा है - गुरु शब्द में 'गु' अन्धकार का द्योतक है और 'रु' शब्द प्रकाश का। अत: जो हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाए वह गुरु है। गुरु की परिभाषा
छोटे से छोटा शिल्पकार हो या बड़े से बड़ा अभियन्ता उसे किसी न किसी रूप में कोई न कोई उपदेष्टा, गुरु, उपाध्याय, आचार्य या मार्गदर्शक चाहिए ही। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में गुरु की आवश्यकता होती है। तभी तो कहा गया है -
गृणाति उपदिशति धर्ममिति गुरुः। गिरत्य ज्ञानमिति गुरुः। यद्धा गीर्यते स्तूयते देवगन्धर्वादिभिरिति गुरुः।४
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