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गुरु का स्वरूप : गुरुतत्त्वविनिश्चय के विशेष सन्दर्भ में : ७५
अर्थात् धर्म का जो उपदेश दे, अज्ञानरूपी तम का विनाशकर ज्ञानरूपी ज्योति से जो प्रकाश करे, देव गन्धर्वादि से जो स्तुत्य हो, उन्हीं साक्षात् देव की संज्ञा 'गुरु' है । गुरु शब्द का लक्षण बताते हुए सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारसंग्रह में शंकराचार्य ने कहा जिसने अविद्यारूपी ग्रन्थि का भेदन कर दिया है या जो अविद्यारूपी ग्रन्थि से छूट चुका है, वह गुरु है । ५
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जैन ग्रन्थों में गुरु के लिए आचार्य, ६ बुद्ध, ७ धर्माचार्य, ८ उपाध्याय ' आदि शब्दों के प्रयोग भी देखने को मिलते हैं । भगवतीसूत्र के वृत्तिकार अभयदेव सूरि के अनुसारजो जिनेन्द्र द्वारा प्ररूपित आगमज्ञान को हृदयंगम कर उसे आत्मसात करने की उत्कण्ठा वाले शिष्यों द्वारा विनयादिपूर्ण, मर्यादापूर्वक सेवित हो उसे आचार्य कहते हैं । १ 0 भगवती आराधना में कहा गया है- दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों का स्वयं निरतिचार पालन करता है तथा दूसरों को इसमें प्रवृत्त करता है, वह आचार्य है।११ वीरसेनाचार्य ने षट्खण्डागम की धवला टीका में लिखा है- जो पाँच अक्षरों का स्वयं पालन करता है और दूसरों से करवाता है, वह आचार्य कहलाता है । १२ सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद ने कहा है कि जिसके निमित्त से व्रतों का आचरण करता है वह आचार्य कहलाता है । १३ गुरुतत्त्वविनिश्चय में कहा गया हैजो आचाररूपी व्यवहार को जानने वाला है, व्यवहाररूपी आचार का प्रतिपादन करने वाला है तथा व्यवहाररूपी क्रिया को करने वाला है, वह सद्गुरु है । १४ तात्पर्य है व्यवहार, व्यवहारी और व्यवहर्तव्य की त्रिपुटी को जानने वाला सद्गुरु है ।
गुरु के लक्षण
विद्यार्थी के लिए सद्गुरु का होना अत्यन्त ही आवश्यक है। | सद्गुरु के अभाव में विद्यार्थी कितनी ही कुशाग्र बुद्धि का क्यों न हो, वह उसी प्रकार प्रकाशित नहीं हो सकता है जिस प्रकार सूर्य के बिना चन्द्रमा । लेकिन प्रश्न उपस्थित होता है कि सद्गुरु की संगति कैसे की जाये? उसकी पहचान क्या है? उसके लक्षण क्या हैं? जिसे देखकर यह समझा जाए कि यह सद्गुरु है या असद्गुरु । भगवतीसूत्र में सद्गुरु के लक्षणों को बताते हुए कहा गया है - जो सूत्र और अर्थ दोनों का ज्ञाता हो, उत्कृष्ट कोटि के लक्षणों से युक्त हो, संघ के लिए मेढ़ि के समान हो, जो अपने गण, गच्छ अथवा संघ को सभी प्रकार के सन्तापों से पूर्णतः विमुक्त रखने में सक्षम हो तथा जो अपने शिष्यों को आगमों की गूढ़ अर्थसहित वाचना देता हो वही आचार्य कहलाने के योग्य है । १५ प्रवचनरूपी समुद्र जल के बीच स्नान करने से अर्थात् परमात्मा के परिपूर्ण अभ्यास और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल हो गयी है, जो निर्दोष रीति से छह आवश्यकों का पालन करता हो, जो मेरु के समान निष्कम्प हो, शूरवीर हो, सिंह के समान निर्भीक हो, श्रेष्ठ हो, देश, कुल और जाति से शुद्ध हो, सौम्यमूर्ति हो, अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित हो, आकाश के समान निर्लेप हो, संघ के अनुग्रह में
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