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६८ : श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९ जिस प्रकार अग्नि के संयोग के कारण जल भले ही गरम हो गया हो, किन्तु उसका मूल स्वभाव शीतलता है, वैसे ही जीवन भले ही धन, कुटुम्ब आदि के संयोग को प्राप्त होकर वर्तमान में दुःखी या चिन्तित हो रहा है, किन्तु उसका अन्तरङ्ग प्रयत्न सुखी व शान्त होने का ही रहता है। जीवन का यह स्वतन्त्र प्रयत्न ही दर्शाता है कि उसका स्वभाव दुःख और चिन्ता नहीं, बल्कि सुख और शान्ति है, जीवन के इस स्वभाव का नाम ही धर्म है।२
जीवन के दो रूप हैं - बाह्य शरीर और अन्तरङ्ग मन। शरीर स्थूल और द्रष्टव्य है, अत: उसकी रक्षा के लिये उसके धर्म को अपनाते हैं, परन्तु मन का धर्म जो सुख और शान्ति है उसको हम नहीं जानते, इसलिये उसकी परवाह भी नहीं करते। शरीर की भाँति वह भी कुछ है, ऐसा जानकर उसके स्वास्थ्य के लिये भी कुछ करना धर्म है।३
योग्य कार्य करने का फल सुख और न करने योग्य कार्य के करने का फल दुःख होता है। इसे ही कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक कहते हैं। सुख स्वभाव से इसका सम्बन्ध होने के कारण यह कर्तव्य का विवेक भी धर्म कहलाता है।४
धर्म के प्रकरण में तीन बातें जानना आवश्यक है - हमारा स्वभाव क्या है? हमारा कर्त्तव्य क्या है? और किस कर्म का क्या फल है? -ये तीनों ही जानने योग्य हैं। यही कारण है कि धर्म भी एक विज्ञान है।५
इन तीनों प्रश्नों का उत्तर देने के लिये पूज्य वीजी ने तीन स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे हैं - ‘पदार्थ विज्ञान', 'शान्ति पथ प्रदर्शन' और 'कर्म सिद्धान्त' । यहाँ ‘पदार्थ विज्ञान'६ ही विचारणीय बिन्दु है।
एक आध्यात्मिक सन्त योग की चर्चा करे, समाधि की चर्चा करे अथवा संसार के सम्पूर्ण पदार्थों की चर्चा करे तो वह तो युक्तियुक्त प्रतीत होता है, किन्तु पदार्थ विज्ञान जैसे नीरस ग्रन्थ की रचना के मूल में पूज्य वर्णीजी का क्या उद्देश्य हो सकता है, यह अवश्य ही विचारणीय है। अत: मैंने चिन्तन किया और मेरी दृष्टि आचार्य उमास्वामी द्वारा प्रस्तुत उन सूत्रों पर गई, जिसमें उन्होंने संसार-सागर से मुक्त होने के लिये किंवा विषय-भोगों से दूर रहने के लिये एक नवीन दृष्टि दी है और इसी दृष्टि के आलोक में मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि – जैनाचार पद्धति को अपने जीवन में अपनाते हुए पूज्य वर्णी जी ने आचार्य उमास्वामी के द्वारा तत्त्वार्थसूत्र में हिंसादि पञ्च पापों से विरत होने के लिये व्रतों की जिन पाँच-पाँच भावनाओं का उल्लेख किया है उनको तो आत्मसात किया ही है, किन्तु उससे भी आगे आचार्य उमास्वामी ने जो निर्देश दिये हैं उनको भी अपने जीवन में उतारा है।
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