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श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९
विस्मय की बात है कि कवि जैन होते हुए भी मधु और मूत्र प्रयोगों का उल्लेख बहुलता से करता है, नर-मूत्र का प्रयोग भी लिखा है। हो सकता है कि आगे आयुर्वेदीय सिद्धान्तों का महत्त्व अधिक रहा हो और धार्मिक दृष्टि गौण कर दी हो, यह भी सम्भव है कि स्थान भेद के कारण उपर्युक्त प्रयोग ज्यादा अनुचित न समझे जाते हों, अभी पं० मल्लिनाथ जी शास्त्री मद्रास की पुस्तक से ज्ञात हुआ कि तमिल प्रान्त में लौकी (घिया) अभक्ष्य मानी जाती है बहुबीज के कारण, जबकि उत्तर भारत में वह मुनि आहार के लिए उत्तम साग माना जाता है। ऐसा ही कोई विवाद उपर्युक्त प्रयोगों के सम्बन्ध में रहा हो। स्व० मोरारजी भाई स्व-मूत्र को चिकित्सा और स्वास्थ्य के लिए आम औषधि मानते थे, गुजरात में यह प्रयोग बहुत प्रचलित है। गर्भ निरोधक औषधि के लिए भी एक गाथा क्रमांक २४६ लिखी है।
गाथा संख्या २५५ से ज्ञात होता है कि कवि के समस “योगसार'' नामक कोई आयुर्वेदीय ग्रन्थ रहा होगा जिसके खोज की आवश्यकता है। हो सकता है यह ग्रन्थ हरिपाल की ही कृति हो अथवा सम्भव है किसी अन्य की कृति का उल्लेख हो यह शोध का विषय है। यहां हम प्राकृत वैद्यक की २५७ गाथाएं अविकल रूप में प्रकाशनार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपालु पाठकों से निवेदन है कि मूल ग्रन्थ को मेरी अनुमति के बिना प्रकाशन की दुश्चेष्टा न करें ना ही मेरी लिखित अनुमति के बिना कोई अनुवादादि कार्य किया जावे। सधन्यवाद
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