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आचार्य हरिभद्रसूरिप्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन : ५७ भी सूत्रों के अनुसार होती है। अत: द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार उचित प्रवृत्ति जिनेन्द्रदेव के शासन में सर्वत्र ही गौरव (बहुमान) प्राप्त कराती है तथा इसके विपरीत आचरण से स्व-पर का विनाश और आज्ञाकोप आदि दोषों का सेवन होता है अत: अति निपुणबुद्धि से सम्यक् प्रवृत्ति करनी चाहिए।"१७ बुद्धि के भेद
आचार्य हरिभद्र ने उपदेशपद में बुद्धि के चार भेद बतलाये हैं१८ - १. औत्पत्तिकी, २. वैनयिकी, ३. कर्मजा तथा ४. पारिणामिकी। १. औत्पत्तिकी बुद्धि
इस बुद्धि की उत्पत्ति में क्षमोपशम कारण होता है। २. वैनयिकी बुद्धि
विनय अर्थात् गुरु शुश्रूषा आदि ही प्रधान कारण जिसमें होता है वह वैनयिकी बुद्धि है। ३. कर्मजा बुद्धि
कर्म रूप नित्य व्यापार से जो बुद्धि उत्पन्न होती है वह कर्मजा बुद्धि है। ४. पारिणामिकी बुद्धि
सुदीर्घकाल तक पूर्वापर तत्त्व-अवलोकन आदि से उत्पन्न आत्मधर्म जिसमें प्रधान . कारण होता है उसे पारिणामिकी बुद्धि कहते हैं।
- बुद्धि के उपर्युक्त चार भेदों को अनेक पदों द्वारा अनेक दृष्टान्तों के माध्यम से समझाया है।
प्रथम औत्पत्तिकी बुद्धि के विषय में सत्रह उदाहरण (पद) प्रस्तुत किये हैं - १. भरतशिला, २. पणित, ३. वृक्ष, ४. मुद्रारत्न, ५. पट, ६. सरड, ७. काक, ८. उच्चार, ९. गज (गोल खम्भे), १०. भाण्ड (घयण), ११. गोल, १२. स्तम्भ, १३. क्षुल्लक, १४. मार्ग, १५. स्त्री, १६. द्वौपती तथा १७. पुत्र। १९ ।
उपर्युक्त दृष्टान्तों में से रोहक कुमार के ये तेरह दृष्टान्त नन्दिसूत्र में बतलाये हैं२० - भरहसिल, मिण्ट, कुक्कुड, तिल, बालुण, हत्थि, अगड, वणसण्डे, पासय, अइआ, पत्ते, खाडहिला तथा पंचपियरो। इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि इन सभी आख्यानों का स्रोत नन्दिसूत्र है। भाव तथा भाषा की दृष्टि से यह भी ज्ञात होता है कि वैनयिकी तथा पारिणामिकी बुद्धि के लक्षण एवम् उदाहरण भी नन्दिसूत्र से ग्रहण किये गये हैं।
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