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आचार्य हरिभद्रसूरिप्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन
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हरिभद्रसूरि ने 'उपदेशपद' ग्रन्थ का प्रारम्भ मङ्गलाचरणपूर्वक करते हुए भगवान् महावीर को नमन किया है तथा उनके उपदेश के अनुसार मन्दमति लोगों के प्रबोधन हेतु कुछ उपदेश पदों को कहने की प्रतिज्ञा की है
नमिऊण महाभागं तिलोगनाहं जिणं महावीरं। लोयालोयमियंकं सिद्ध सिद्धोवदेसत्यं ।। १ ।। वोच्छं उवएसपए कइइ अहं तदुवदेसओ सुहुमे।
भावत्थसारजुत्ते मंदमइविबोहणट्ठाए।। २ ।। इसी तरह ग्रन्थ के अन्त में कहते हुए ग्रन्थ का स्वकर्तृत्व सूचित किया है -
लेसुवएसेणेते उवएसपया इहं समक्खाया। समयादुद्धरिऊणं मंदमतिविबोहणट्ठाए।।१०३९।। जाइणिमयहरियाए रइता एते उ धम्मपुत्तेणं।
हरिभदायरिएणं भवविरहं इच्छमाणेणं।। १०४०।। उपदेशपदवृत्ति के रचयिता मुनिचन्द्रसूरि ने भी मङ्गलाचरणपूर्वक 'उपदेश पदों' का दो प्रकार से अर्थ करते हुए कहा है कि 'सकल पुरुषार्थों में प्रधान मोक्ष ही है अत: मोक्ष पुरुषार्थ विषयक उपदेशों के पद अर्थात् मनुष्यजन्मदुर्लभत्व आदि स्थानभूत शिक्षाविशेष पदों का इसमें प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय अर्थ के अनुसार 'उपदेश'
और 'पद' दोनों में कर्मधारय समास करने पर उपदेशों को ही पद माना गया है। तदनुसार मनुष्य-जन्म की दुर्लभता आदि अनेक कल्याणजनक विषयों की इस ग्रन्थ में चर्चा की गई है, जो उपदेशात्मक वचन रूप हैं।११
हरिभद्रसूरि ने मङ्गलाचरण आदि के बाद सभी उपदेश पदों में प्रधान उपदेश पद का उल्लेख करते हुए कहा है -
लक्षूण माणुसत्तं कहंचि अइदुल्लहं भवसमुद्दे।
सम्मं निउंजियव्वं कुसलेहि सयावि धम्मम्मि।।३।। अर्थात इस संसार समद्र में जिस किसी प्रकार से अति दर्लभ मनष्य जन्म पाकर आत्महितैषी जनों को सद् सम्यक् धर्म में कुशलतापूर्वक मन, वचन और शरीर को लगाकर उसका सदुपयोग करना चाहिए।
मनुष्य जन्म की दुर्लभता के सम्बन्ध में निम्नलिखित दस दृष्टान्त दिये हैं - १. चोल्लक, २. पाशक, ३. धान्य, ४. द्यूत, ५. रत्न, ६. स्वप्न, ७. चक्र,
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