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आचार्य हरिभद्रसूरिप्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन : ६३ हम देखते हैं कि उपदेशपद एक अनुपम ग्रन्थ है जिसमें कथानकों के माध्यम से सदाचार की प्रेरणा दी गई है। वस्तुत: कथाएं जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपने में समेटे हुए सहजता के साथ मनोरंजन करती हुई अपूर्व प्रेरणायें प्रदान करती हैं। सैकड़ों प्रकार के सिद्धान्त जहां कार्यकारी नहीं होते वहां प्रभावपूर्ण कथा या दृष्टान्त व्यक्ति को मार्ग पर लाने के लिए हृदय परिवर्तन में अधिक सहकारी बनती है, क्योंकि ऐसी कथाओं में कोई न कोई गहरी संवेदना अवश्य रहती है।
डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने इन कथाओं के विषय में लिखा है कि हरिभद्र की कार्य और घटनाप्रधान कथाओं में घटनाओं के चमत्कार के साथ पात्रों के कार्यों की विशेषता, आकर्षण और तनाव आदि भी हैं। यों तो ये कथायें कथारस के उद्देश्य से नहीं लिखी गयी हैं। लेखक विषय का उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण करना चाहता है अथवा उपदेश को हृदयङ्गम कराने के लिए कोई उदाहरण उपस्थित करता है, तो भी कथातत्त्व का समीचीन सन्निवेश है। ५० इन लघु कथाओं में जीवन-निर्माण, मनोरंजन, मानसिक क्षुधा की तृप्ति, जीवन और जागतिक सम्बन्धों के विश्लेषण एवं चिरन्तन और युग सत्यों के उद्घाटन की सामग्री प्रचुर रूप में वर्तमान है तथा सामान्य रूप से ये सभी कथायें, दृष्टान्त या उपदेश-कथायें ही हैं। ५१
इस प्रकार उपदेशपद में व्यक्त हरिभद्रसूरि के चिन्तन के महत्त्व को देखते हुए उसके साङ्गोपाङ्ग एवं तुलनात्मक अध्ययन की आज के सन्दर्भ में बहुत आवश्यकता है ताकि उनके विराट व्यक्तित्व और चिन्तन का लाभ सर्वसाधारण को उपलब्ध हो सके।
सन्दर्भ-सूची १. जाइणिमयहरियाए रइता एते उ धम्मपुत्तेणं।
हरिभद्दायरिएणं भवविरहं इच्छमाणेणं।। - उपदेशपद, १०४० . २. (क) तम्हा करेह सम्मं जह विरहो होइ कम्माणं। पंचाशक, ९४०.
(ख) दुक्ख विरहाय भव्वा लभंतु जिणधम्मसंबोधिं। धर्मसंग्रहणी, १३९६ . ३. उपदेशपद (उवएसपय) सन् १९२८ में श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर
संस्था, रतलाम से पंचाशक, धर्मसंग्रहणी आदि आठ ग्रन्थों के साथ प्रकाशित
हुआ है। ४. उपदेशपद महाप्रन्थ नाम से दो भागों में श्री मन्मुक्तिकमल जैन मोहनमाला,
बड़ोदरा से क्रमश: १९२३ एवं १९२५ में प्रकाशित। ५. ग्रन्थाग्र० १४५०० सूत्रसंयुक्तोपदेशपदवृत्तिश्लोकमानेन प्रत्यक्षरगणनया -
उपदेशपदवृत्ति की प्रशस्ति का अन्तिम वाक्य, पृ० ४३४,
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