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यशस्तिलक चम्पू में आयुर्वेदीय स्वस्थवृत्त सम्बन्धी विषय
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२. गेहूँ आदि पदार्थों के खाने से उत्पन्न। ३. दाल आदि दो दल वाले पदार्थों के सेवन से उत्पन्न। .४. घृत आदि स्निग्ध पदार्थों के सेवन से उत्पन्न।
_इस चार प्रकार के अजीर्ण को दूर करने के लिए चार उपायों का प्रतिपादन भी यशस्तिलक में किया गया है, जो निम्न प्रकार है - १. जौ आदि से उत्पन्न अजीर्ण को दूर करने के लिए ठण्डा पानी पीना चाहिये २. गेहूँ आदि से उत्पन्न अजीर्ण को दूर करने के लिए क्वथित (गरम) जल पीना
चाहिये। ३. दाल आदि द्विदल पदार्थों के सेवन से उत्पन्न अजीर्ण को दूर करने के लिए
अवन्तिसोम (कांजी) पीना चाहिये। ४. घृत आदि के सेवन से उत्पन्न अजीर्ण के लिए कालसेय (तक्र) पीना चाहिये। इसी को सोमदेव ने निम्न प्रकार से निबद्ध किया है ---
यवसमिथविदाहिष्वम्बु शीतं निषेव्यं क्वथितमिदमुपास्यं दुजरेऽन्ने च पिष्टे । भवति विदलकालेऽवन्तिसोमस्य पानं,
घृतविकृतिषु पेयं कालशेयं सदैव।। (पृ० ५१९) इस प्रकार यशस्तिलक चम्पू काव्य के तृतीय आश्वास में श्लोक संख्या ३२२ से ३७४ तक विविध छन्दों में स्वास्थ्य सम्बन्धी हिताहित विवेक का प्रतिपादन प्राञ्जल भाषा के माध्यम से जिस रूप में किया गया है उससे जहां ग्रन्थ की प्राञ्जलता लक्षित होती है वहीं ग्रन्थकर्ता के आयुर्वेदविषयक परिपूर्ण एवं परिपक्व ज्ञान का आभास सहज ही हो जाता है, क्योंकि यह सम्पूर्ण वर्णन आयुर्वेद के स्वास्थ्य सम्बन्धी मौलिक सिद्धान्तों पर आधारित है। आयुर्वेदशास्त्र मात्र चिकित्सा-विज्ञान या वैद्यकशास्त्र ही नहीं है, अपितु वह सम्पूर्ण जीवन विज्ञानशास्त्र है, जिसमें मानव जीवन की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं नैतिक प्रवृत्तियों की विवेचना, सूक्ष्मता एवं गम्भीरतापूर्वक की गई है। मानव जीवन के प्रत्येक क्षण की वृत्तियाँ आयुर्वेदशास्त्र में प्रतिपादित हैं। अत: यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नही होगा कि वह आयुर्वेदशास्त्र मानव जीवन के सर्वाधिक निकट है। महाकवि सोमदेव ने इस विषय को जिस प्राञ्जलता एवं प्रौढ़ता के साथ अपने काव्य में निबद्ध किया है वह उनके भाषा ज्ञान की प्रौढ़ता का द्योतक है। प्रस्तुत चम्पू काव्य में लोकहित की भावना को दृष्टिगत रखते हुए ही सम्भवत: आयुर्वेदीय स्वस्थवृत्त की
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