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श्रमण / अप्रैल-जून/ १९९९
आयुष्यं हृदयप्रसादि वपुषः कण्डूक्लमच्छेदि च ।
स्नानं देव यथर्तुसेवितमिदं शीतैरशीतैर्जलैः । । ( पृ० ५०८ )
अर्थात् ऋतु के अनुसार ठण्डे या गरम जल से किया गया स्नान आयु को बढ़ाता है, हृदय को प्रसन्न करता है तथा शरीर की खुजली और थकावट को दूर करता है । श्रमधर्मार्तदेहानामाकुलेन्द्रियचेतसाम् ।
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तव देव द्विषां सन्तु स्नानपानाशनक्रियाः । । (पृ० ५०८)
अर्थात् परिश्रम और धूप से पीड़ित शरीर वाले, इन्द्रिय और चित्त की व्याकुलता वाले आपके शत्रुओं की स्नान, खान-पान की क्रिया हो । अभिप्राय यह है कि जो शारीरिक श्रम व धूप से पीड़ित हों तथा जिनकी इन्द्रियाँ और मन व्याकुल हों उन्हें स्नान, खान-पान नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने पर अनेक उपद्रव हो सकते हैं, जो निम्न प्रकार हैं
दृग्मान्द्य भागात्तपितोऽम्बुसेवी श्रान्तः कृताशो वमनज्वरार्हः ।
भगन्दरी स्यन्दविबन्ध्णकाले गुल्मी जिहत्सु विहिताशनश्च ।। ( पृ० ५०९)
अर्थात् धूप में से आकर तत्काल पानी पीने वाला दृष्टिमान्द्य से पीड़ित होता है, परिश्रम के कारण थका हुआ व्यक्ति यदि तत्काल भोजन करता है तो वमन और ज्वर के योग्य होता है । मल-मूत्र के वेग को रोकने वाला भगन्दर और गुल्म रोग से पीड़ित होता है ।
विधिपूर्वक स्नान करना और तत्पश्चात् करणीय कार्यों की सुन्दर विवेचना सोमदेव द्वारा यशस्तिलक में की गई है। देखिये
स्नानं विधाय विधिवत्कृतदेवकार्यः संतर्पितोतिथिजनः सुमनाः सुवेषः । आप्तैवृतो रहसि भोजनकृत्तथा स्यात्सायं यथा भवति भुक्तिकरोऽभिलाषः । । ( पृ० ५०९)
अर्थात् स्नान करने के पश्चात् विधिपूर्वक देवपूजा आदि कार्य करके स्वच्छ वस्त्र धारण करे और प्रसन्न मन से अतिथि सत्कार करके आप्त (विश्वस्त) व्यक्तियों के साथ उतना भोजन करे जिससे सायंकाल फिर से भूख लग जाय ।
अजीर्ण
सोमदेव ने यशस्तिलक चम्पू में अजीर्ण चार प्रकार का बतलाया है। यथा— जौ इत्यादि हल्के पदार्थों के खाने से उत्पन्न ।
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