Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 582
________________ ५७३ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ जा धरइ नियंबतडं मणिमेहलमंडियं धरित्ति व्व । जलफेणधवलनिवसणरयणायरविहियपरिवेढा ॥६२७९॥ जा तिवलिवलयपरिगयतणुमज्झा सहइ लोयरमणीया । मज्झ परिट्ठियतिवहयपवित्तिया तिहुयणसिरि व्व ॥६२८०॥ अइदूरुन्नयथणवट्ठमंडला सहइ दक्खिणदिसि व्व । फुडदिस्समाणदिसिगयकुंभयडा आगय व्व सयं ॥६२८१॥ थणवट्ठोवरि तारं मुत्ताहारं उरेण धारंती ।। वीरस्स करडिकरसीयरोहकलिय व्व जयलच्छी ॥६२८२॥ सहइ निसग्गारुणपाणिपल्लवा भुयणकप्पवल्लि ब्व । अणवस्यवीरपयकमलमलणसंकंतघणराया ॥६२८३।। जा वहई मुहकमलं व वियसियं दीहरच्छिदलललियं । नासग्गकन्नियं वीरसेणमुहमाणसावासं ॥६२८४।। निम्मलमणिमयकुंडलपडिबिंबियगंडमंडला सहइ । मुहदोखंडियससहरसरणागयउभयखंड व्व ॥६२८५॥ सवणट्ठियमणहरकन्नपूरमणिकिरणनिवहमुव्वहइ । जा पिययमाणुरायं पियइ व्व जणाउ सवणेहिं' ॥६२८६॥ इय चंदसिरीमणहरसरीरसोहावहरियमण-नयणो । लोओ विम्हयरसपसरमूढचित्तो व्व संजाओ ॥६२८७।। जंपइ अन्नोन्नमिणं 'संजायं लोयणाण साफल्लं । भुयणच्छेरयभूयं जमिमीए पलोइयं रूवं ॥६२८८।। पेच्छ पयावइणो वि य असरिससंजोयसंभवो अजसो । अणुसरिसमिहुणसंजोयणेण निन्नासिओ एण्हि' ॥६२८९।। १. त्रिपथगा खंता. टि ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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