Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 810
________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ ૫૨ तो कहइ वीरसेणो केवलनाणोवलद्धपरमत्थो । गंभीर-धीरसण सव्वपरिसाए धम्मकहं |८७८२ ।। 'भो ! भो ! निसुणह भव्वा ! सोउं भावेह सुद्धबुद्धी । आयरह उवाएयं अणुवाएयं परिच्चयह ||८७८३ || धम्मस्स मूलहेऊ पयडियसंसारसयलसब्भावं । सम्मं नाणं तं च्चिय आयरणीयं पयत्तेण ||८७८४ ॥ सम्मन्नाणविहीणो संसारासारयं न लब्भेइ । अमुणियभवनिग्गुन्नो न विरव्व ( ज्ज) इ भवपवंचाओ ||८७८५ ।। संसारविरत्ताणं जम्हा जायंति धम्मपारंभा । अविरत्ता संसारं परमत्थमईए गेण्हति ॥ ८७८६ ॥ सम्मना (न्ना) णसमेओ दूरं निम्महियमोहमाहप्पो । सव्वमणिच्चमसारं मन्नइ संसारवित्थारं ॥ ८७८७ ॥ इय संसारे जं जं नराण वामोहकारणं होइ । तं तं सव्वमणिच्चं नायव्वं बुद्धिमंतेहिं ||८७८८|| हरिविकुम ! तुह एयं रज्जं सत्तंगसंभवमुयारं । सामि अमच्चो रट्टं दुग्गं कोसो बलं मित्तो ॥ ८७८९ ॥ एयस्स पवहणस्स व अपुन्नपवणाहयस्स रज्जस्स । विहडंतस्स न सक्खा कीरइ देवासुरेहिं पि ।।८७९० ।। एत्थ फुडो दिट्ठतो मज्झ पिया सूरनरवई तस्स । पुन्नक्खए न जाया रक्खा रज्जस्स केहिं पि ॥। ८७९१ | इह नत्थि भूमिवलए परक्कमी सूरसेणपडितुल्लो तेणाऽवि न विहडतं नियरज्जं रक्खियं समरे ||८७९२ ॥ Jain Education International ८०१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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