Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 820
________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ एसो वि य वरजीवो बंभलोयं गओ य तत्तो वि । उज्जेणीए वणिओ सुसावओ अह समुप्पन्नो ।।८८९२ ॥ तो सोहम्मे देवो तत्तो राया तओ वि मलयंमि । मलयमेहोत्ति जक्खो उप्पन्नो संपयं एसो ||८८९३ || लंतयकप्पाओ तओ सुरसोक्खं भुंजिऊण पढमयरं । भरहो वि य चविऊणं जाओ हरिविकुमो राया ॥ ८८९४ ।। कय (इ) वयदिणेहिं पच्छा तुमं पि इह भुयणसुंदरी जाया । एएण कारणं जक्खस्स तुहोवरि सिणेहो ।।८८९५ ।। हरि-धम्मदत्त - भिल्ला प्प ( प ) रोप्परं जायगुरुतरसिणेहा । पुण सुरलोए तिन्नि वि ठिया सुहं परमनेहेण ||८८९६ ।। वेसा - महिंद - सुमईभवंमि पुण तुम्ह वडिओ नेहो । पुण सुरलोए वि तहा पुण वर-भरह - भइणिभवे ।।८८९७ ।। “इयमाइभवनिरंतरपवड्ढियं भुयणसुंदरि ! सिणेहं । अणुवत्ततो जक्खो तेणेसो कुणइ तुह नेहं ॥ ८८९८ || नेहो हि नाम वच्छे! कारणमेसो अणत्थ-सत्थाण । तं किमिह जं नं दुक्खं सिणेहमूढा न पावंति' ।।८८९९ ।। तो देवीए भणियं भयवं ! कह एत्तियस्स वि ममेयं । अतुच्छदुक्कडस्स वि विबागविरसं फलं जायं ?' ||८९०० || तो भाइ वीरसेणो 'वच्छे ! अइदुक्करा हु पव्वज्जा । इह तुच्छं पि हु खलियं वज्जेयव्वं पयत्तेणं' ||८९०१ ।। तो पुव्वभवायन्त्रणसमहियसंजायभवविराएहिं । दिट्ठो पजलंतो इव संसारो दोहिं वि जणेहिं ||८९०२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only ८११ www.jainelibrary.org

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