Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
View full book text
________________
८१३
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
अह भुयणसुंदरी वि य आरूढा कणयघडियजंपाणं । सह जक्खपरियणेणं वज्जिरगंभीरतूरेहिं ।।८९१४॥ आपुच्छंताई जणं संभालंताई पउरवग्गं च । सुविसुद्धमाणसाइं उज्जाणवणं पहुत्ताई ।।८९१५।। सकावयारजिणहरपइट्ठियं वंदिऊण पढमजिणं । जंति गुरुसन्निहाणं काउं तिपयाहिणं दो वि ॥८९१६।। उत्तारंति सहरिसं निययसरीराओ भूसणाडोवं । तो पंचमुट्ठिलोयं कुणंति सयमेव हिट्ठाइं ॥८९१७।। तो केवलिणा सम्मं पवयणविहिणा विसुद्धचित्ताइ । पव्वावियाइं मुणिलिंगदाणपुव्वं अणुक्कमसो ॥८९१८।। अन्ने वि तेहिं सहिया सामंता मंडलीयरायाणो । मंती पौरजणा वि य पव्वइया भवविरत्तमणा ।।८९१९।। चंदसिरीगणिणीए समप्पिया भुयणसुंदरी अज्जा । हरिविकुममाइ(ई)या मुणिणो नियसन्निहिं धरिया ।८९२०।। तो वीरसेणसूरी अउज्झनयरीओ जाइ चंपपुरि । वसुपुज्जसन्निहाणे उज्जाणे ठाइ एगमि ॥८९२१।। तत्थ वि य अमरसेणं पडिबोहइ भवसरूवकहणेण । अह सो वि देवसेणं नियपुत्तं ठवइ रज्जंमि ||८९२२।। सयलंतेउरसहिओ सामंताईहिं परिगओ राया । बहुपौरजणसमेओ पव्वइओ वीरपासंमि ॥८९२३।। अब्भसियसाहुकिरिया अहिगयनीसेससुत्तसारत्था । कयघोरतवच्चरणा हरिविकम-अमरसेणमुणी ।।८९२४।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838