Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 821
________________ ८१२ 'हा ! विरसो संसारो जणओ होऊण होइ भत्तारो । धूया. वि होइ भज्जा पुरिसो इत्थी दुकम्मेहिं' ||८९०३ || तो संसारसमुब्भवगरुयभउब्धंतखुहियहिययाइं । अह विन्नति वीरं पव्वज्जाकारणे दो वि ।।८९०४ ॥ 'भयवं ! कुणसु पसायं काऊण दयं भवन्नवगयाई । दिक्खादाणपयाणेण देव ! अम्हे समुद्धरसु' ||८९०५ || तो भइ वीरसेणो ' अहासुहं मा करेह पडिबंधं । संसारविरत्ताणं किच्चमिणं सव्वसत्ताणं' ||८९०६ ।। तो पणमिऊण वीरं राया तप्पणइणी य पुरलोओ । पविसइ पुरिं पसंतो संसारसुहेसु निव्विन्नो ॥८९०७ ॥ तो सुपसत्थे दियहे कुमारसुरविकुमं सरज्जमि । अहिसिंचइ नरनाहो पयंडभुयदंडसामत्थं ॥ ८९०८।। संमाणियसामंतो सुनिरूवियसयलपरियणं पुरओ । आपुच्छियपौरजणो निव्वत्तियरायकाव्वो ||८९०९॥ - सक्कावयारमाइसु चेइयभवणेसु सव्वरिद्धीए । अट्टाहियामहोत्सवमसमं कारावइ नरिंदो ||८९१०।। नीसेसं पि हु भुयणं अदरिदं कुणइ अत्थदाणेण । तह तेण तया दिन्नं जह से गिण्हंतया नत्थि || ८९११॥ तो सुपसत्थे दियहे सुइभूओ कयविलेवणो राया । सह भुयणसुंदरीए आहरणविहूसियसरीरो || ८९१२ ॥ देवंगवत्थनिवसण-कयमालइकुसुमसेहरो रुइरो । जयवारणमारूढो थुव्वंतो सयललोएहिं ॥ ८९१३ ।। Jain Education International सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838