Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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८०९
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
साहू वि विहरमाणो विजयानयरीए आगओ तत्थ । बहिरुज्जाणंमि ठिओ भिल्लमुणिंदेण परियरिओ ॥८८७०॥ तो उसहदत्तसेट्ठी लोओ सव्वो वि नयरिवत्थव्यो । मुणिधम्मदत्तपासे गुणाणुराएण संपत्तो ।।८८७१।। अणुसासिया य सव्वे सुद्धजिणधम्मदेसणापुव्वं । समयं लभूण तओ भणियमिणं उसहदत्तेण ।।८८७२।। 'भयवं ! परंपराए निसुयं अम्हेहिं जह अरन्नंमि । कूरो वि सावयगणो पडिबुद्धो तुम्ह संगण' ॥८८७३॥ तो भणइ धम्मदत्तो ‘एवमिणं जह तए सुयं पुट्विं । एसो च्चिय पल्लिवई पच्चक्खो मुणिवरो जाओ ।।८८७४।। एसो ताव मणुस्सो पल्लिवई मुणइ भासियं सुमइ(ई) । विमलमण-वयण-करणा तिरिया वि पबोहिया बहुया ।।८८७५।। सा मह पबोहसत्ती जा पयडा भिल्लमुणिवरस्साऽवि. । अहवा एयं पुच्छह लज्जामि सयं कहंतो हं' ।।८८७६।। इय वत्तसरलयाए अप्पपसंसापराय(पराइ) वाणीए । मायापच्चयमसुहं कम्मं बद्धं मुणिंदेण ।।८८७७।। तो उसहदत्तमाई सव्वे वि गया सकीयट्ठा(ठाणेसु । तं वयणमगरहंतो मुणी वि अन्नत्थ विहरियओ ॥८८७८।। नियआऊ(उ)यक्खएणं संलेहणपुव्वयं कयाणसणो । कयपायवोवगमणो पंचत्तं उवगओ साहू ।।८८७९।। मरिऊणं उववन्नो तथे(त्थे)व सणंकुमारकप्पंमि । भिल्लमुणी वि य समणो मरिउं तत्थेव उववन्नो ।।८८८०॥
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