Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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८०२
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ न बिहप्फइमइसरिसो मंती संभवइ एत्थ भुयणमि । तस्स वि न बुद्धिविहवो विफु(प्फु)रिओ रज्जभंसंमि ॥८७९३॥ र8 अइपुढे पि हु रक्खियमवि सव्वुवद्दवभयाओ । पुन्नक्खये नियं पि हु परकीयं तक्खणे होइ ॥८७९४।। दुग्गाई सुदुग्गाइं वि गम्माई हवंति वैरिलोयस्स । कोसो खलो व्व जाओ वैरिवसे पुन्नच्छि(छि)द्दम्मि ॥८७९५॥ सो करि-तुरय-महारह-पक्कलपाइक्कबलसमुग्घाओ । चित्तलिहिओ व्व न फुरइ नरस्स खीणेसु पुन्नेसु ॥८७९६।। जे आसि पुरा मित्ता अप्पवसा वेरियाण ते घडिया । नियआउहनिवहाइं व पहरंति दिदं नियस्सेव ॥८७९७।। इय नरवरिंद ! तइया सूरस्स सुरिंदसंथुयबलस्स । रज्जं छाहाखेड्डं व विहडियं पेच्छमाणस्स ॥८७९८।। जं चिय सूरवंतं रज्जं कालंतरेण तं चेव । नरसीहेणक्वंतं नहं व ससिणा सुविच्छिन्नं ॥८७९९।। नरसीहस्स वि अरिरायमउलिमणिमसिणपायवीढस्स । एक्कपए च्चिय नटुं सुमिणयदिटुं व तं रज्जं ॥८८००। इय भाविऊण हियए हरिविकुम ! मा करेसु अणुबंधं । रज्जे पुत्त-कलत्ते विहवे तह विसयसोक्खे य' ॥८८०१।। तो राय-रायपत्तीए परियणेणं च पौरलोएण । भणियं 'भयवं! एवं इच्छामो तुम्ह अणुसहि' ।।८८०२।।
अह भुयणसुंदरीए लद्धावसराए पुच्छिओ वीरो । __ 'भयवं ! मह संदेहं अवणेह जहत्थकहणेण ॥८८०३।।
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