Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 808
________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा | अह सो पसत्थादियहे जोगो त्ति वियाणिऊण राएण । सुरविकुमोऽहिसित्तो जुयरज्जपयंमि गरुयंमि ||८७६० ।। अह अन्नदिणे राया उवरिमतलमणिगवक्खउवविट्ठो । सह भुयणसुंदरीए जा अच्छइ वरविणोएहिं ॥ ८७६१ ॥ ता भुयणसुंदरीए उवसंतकसाय - विसयपसराए । वीसंभ- पणयगब्भं नरनाहो भणिउमाढत्तो ॥ ८७६२ || 'इह संसारे खणिगे लद्धं मणुयत्तणं किर नरेण । तह कायव्वं विउसा जह परलोए सुहं होइ ||८७६३ || इहलोयं चिय अहमा इह-परलोयं च मज्झिमा केइ । परलोयमेव वच्छंति राय ! जे उत्तमा पुरिसा ||८७६४ || इह अहम - मज्झिमुत्तमपुरिसाणं देव! उत्तमा दुलहा । दह-पंच मज्झिमनरा अहमेहिं निरंतरं भुयणं ||८७६५ ॥ चइऊण पढमपक्खे जइ लब्भइ उत्तमत्तमिह कह वि । ता भणह किं न लद्धं करिकन्नचलंमि जियलोए ? || ८७६६ ॥ संसारसरूवमिणं नरिंद! परमत्थवज्जियं सयलं । ७९९ तत्थ वि जो पडिबंधो सो परिणामे दुहनिमित्तं ॥ ८७६७ ॥ एसो अज्झवसाओ निरंतरं राय ! मह मणे फुरइ । देवस्स पुणो चित्तं सम्ममवगंतुमिच्छामि' ||८७६८|| ईसि (सी) सि विहसिऊणं भणियं हरिविकुमेण ससिणेहं । 'किं उज्जए ! न नायं मह हिययं एत्तियदिणेहिं ? ||८७६९ । संति कलत्ताणि बहूणि जाणि परलोयविग्घकारीणि । परलोयसाहयं पुण तुह सरिसं होइ पुन्नेहिं ॥ ८७७० || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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