Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 806
________________ ७९७ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ 'होसु अविहवा वच्छे ! मह कुलपासायधारणधरित्ति !' । इय ससुरकयासीसा कमलसिरीसन्निहिं जाइ ||८७३८।। तत्थ नियसासुयाए कयप्पणामाऽहिणंदिया तीए । . वच्चइ नियपासायं कुमारपासायसन्निहियं ॥८७३९।। कयखंड-खज्जबहुभक्खभोज्जतित्तंमि सयलजियलोए। दिज्जंतकणयभूसणनेवत्थजहिच्छजणदाणे ॥८७४०॥ पूइज्जमाणपुज्जे सम्माणिज्जंतरायसामंते । कयनियकुलकायव्वे चित्तंमि महोत्सवे रम्मे ॥८७४१।। तो अमरसेणराया कहमवि मोयाविऊण रायाओ । संपूइओ ससेन्नो चंपानयरिं च संपत्तो ॥८७४२।। हरिविकुमो वि कुमरो अन्नोन्नघणाणुरायरमणीयं । अद्दिढविओयदुहं परोप्परं विप्पियविहीणं ॥८७४३।। ईसा-विसायरहियं कसायहीणं परूढवीसंभं । अवरोप्परगुणकित्तणसमहियवलुतघणरायं ।।८७४४।। भुयणेक्कपेच्छणीयं विसिठ्ठजणसम्मयं मणभिरामं । सह भुयणसुंदरीए विसयसुहं सेवइ पहिट्ठो ।।८७४५।। एवं पइदियहपहि?माणगरुयाणुरायरत्ताण । अमयघडिय व्व सरसा वच्चंति दिणा सुहं ताण ।।८७४६।। अह अजियविकूमो वि य रज्जधुराधरणपच्चलं कुमरं । नाउं पसत्थदियहे अहिसिंचइ निययरजंमि ||८७४७।। अहिगयसंसारअसारयत्तसंजायगुरुतरविराओ । सव्वपयत्थनियत्तियवामोहो निहयममक्का(का)रो ॥८७४८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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