Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
एयंगलक्खणेहिं नियनाणबलेण पुत्त ! जाणामि । एसा तिहुयणकल्लाणभायणं बालिया होही ।।७८१५।। सारं संसारस्स व भूसणमिव पुन्नभुवणवलयस्स । तिलयं व तिलोयस्स वि जायं तुह कन्नयारयणं ॥७८१६।। तुम्हारिसाण अहवा भवियव्वं एरिसेहिं रयणेहिं । रोहणतडिं विणा इयरमहिहरेसुं न रयणाई ||७८१७।। कारणसरिसं कज्जं निप्फज्जइ सयलजीवलोयंमि । न हि सहयारदुमाओ लिंवफलं होइ कइया वि ।।७८१८।। जो एयं परिणेही सोऽवस्सं चउसमुद्दवसुहाए । भूवालमौलिलालियकमवीढो भुंजिही रज्जं' ||७८१९।। इय भणिऊणं जक्खो रक्खं काऊण माउ-धूयाण । भुंजंतो वरभोए चिट्ठइ सह जक्खविलयाहिं ।।७८२०।। तो अइगयंमि मासे गरुयमहिड्डीए वड्डियाणंदो । कयसमुचियकायव्वो नामट्ठवणं परिठ्ठवइ ।।७८२१।। एयाहिंतो भुयणे वि नत्थि सुंदेरसंजुया का वि । ठावइ जक्खो सिरिभुयणसुंदरी नाम धूयाए ।।७८२२।। एवं सा पइदियहं परिवड्डइ जक्खरायभवणंमि । कप्पलय व्व सकोउयसुरनारीलालियसरीरा ।।७८२३।। अन्नन्नाहि करग्गे घेप्पंती जक्खिणीहिं सा वाला । संचरइ नलिणिकमलेसु सरहसं रायहंसि व्व ।।७८२४।। सा रायसीहधूया जह वड्डइ मलयकंदरदरीए । तह दुट्ठदुकम्माणं तमगम्मं कारणं जायं ।।७८२५।।
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