Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 796
________________ ७८७ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ नाणाविहतवनिरओ सुविसुद्धासारभिक्खभोई य । सव्वत्थ अपडिबद्धो सयणाइयमुक्कवामोहो ।।८६२९।। एमाइ गुरुवइ8 अणुट्ठमाणो विसुद्धमुणिकिरियं । मुच्चइ नीसंदिद्धं चिरसंचियकम्मवाहीहिं ।।८६३०।। पलहूहुयकम्मंसो नियत्तमाणिट्ठविरहमाइदुहो । लद्धं चरणारोग्गं परिवड्डियसुद्धपरिणामो ।।८६३१।। तल्लाभनिव्वुईए कम्मुदयवसेण संपडतेसु । न खुहइ परीसहेसुं तत्तविऊ नोवसग्गेसु ॥८६३२।। एवं च कुसलसिद्धी थिरासइत्तेण धम्मउवओगो । पावइ तेउल्लेसं अणुहवओ मन्नइ गुरुं पि ॥८६३३।। ता भो! भणामि सव्वे! दुलहो खलु होइ सुगुरुसंजोगो । जम्हा न गुरूहि विणा कम्मवाहीओ खिज्जति' ||८६३४।। तो भणइ बंधुयत्तो ‘सोयारजणोवयारबुद्धीए । अवितहमाइट्टमिणं भयवं! संतोवयारपरं ।।८६३५॥ गुरुलाहविरहियाणं धम्मारंभा सुदुल्लहा होति । तयणो(णु)ट्ठाणेण विणा न कम्मवाहीओ नासंति ॥८६३६॥ परमारोग्गं पि न ताव होइ जा संति कम्मवाहीओ । तम्हा कल्लाणपरंपराए हेऊ गुरू हुंति ॥८६३७॥ किं तु मह कहह भयवं ! गुरुवयणाराहओ असढचित्तो । जो पालइ पव्वज्जं सुविसुद्धं किं फलं तस्स ?' ||८६३८॥ पुण भणइ केवली 'बंधुयत्त ! साहेमि सुणसु एगमणो । निम्मलपव्वज्जापालणफलं जं जिणुद्दिष्टुं ॥८६३९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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